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मप्ताकद सिंह विरउ मज्जण्णचरित
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गो वगा पुगु उम्पाउँ अनु मुत्तु रिक्खु दिणु धण्णउँ । घरे-घरे तोरणु मंगलु घोसिउ णच्चइ णारीपणु परिउसिउ। णेत्तपट्ट पडि कंचण चाय वंदि-विंद परिपूरिय राय। किय आयारु सच्चु तहो वालहो अलि-जिय-कुडिल-केस सोमालहो ।
इव तहिं वीया-इंदुव वड्ढइ दिवे-दिवे रूव-रिद्धि आवड्ढई। घता-..- एत्तहिं रूविणिए पल्लेके दिछु ण बालउ। पुछिउ लंजियउ कहिं महु सिसु णपण-विसालउ ।। 54 ।।
(5) वत्थु-छंद- हलि लवंगिए-एलि-कंकेलि-कल
कुवलय-दल-णयणि चंदवयणि चंदिणि सुलक्खणि। । महु वालु कहिं पासु भण भाणुमइ तुहं कहि वियक्खणि ।। ताम णियंति णियविणिउँ मंदिरु सयलु गविठु ।
पुणु रूविणिहिं पयासियउ माइ कहिपि ण दिठु।। छ।। तं णिसुणेवि रूविणि पुणु रुयंति महि-मंडले णिव मिय थरहरंति ।
अत: उसके वन में जाते ही पुत्र उत्पन्न हो गया। आज का मुहूर्त, नक्षत्र एवं दिन धन्य है। "घर-घर में तोरण बाँधे गये। मंगलघोष किये गये। गणिकाएँ एवं अन्य नारीजन नाच रही थीं। राजा ने नेत्रपट्ट और कंचनभूषणों का दान देकर बन्दी-वृन्दों की मनोकामनाएं पूर्ण की। अलि को जीतने वाले, काले कुटिल केश वाले उस सुकुमार बालक का आदरपूर्वक योग्य पालन-पोषण किया जाने लगा। वह बालक द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा और प्रतिदिन उसके (रूपिणी के पुत्र प्रद्युम्न ) रूप की ऋद्धि बढ़ने लगी। घत्ता और इधर, रूपिणी ने (जब) पलंग पर (अपने) बालक (प्रद्युम्न) को नहीं देखा तब उसने अपनी लज्जिका (दासी) से पूछा कि मेरा नयन विशाल शिशु कहाँ है?।। 54।।
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पुत्र के अपहरण पर माता रूपिणी का विलाप वस्तु-छन्द–हे लवंगिके, हे एले. हे कंकेलि, हे कले, हे कमलनेत्रे, है चन्द्रबदनी, हे चन्दने, हे सुलक्षणे, बोलो, मेरा
बालक किसके पास है? हे भानुभति, हे विचक्षणे, बोलो, मेरा बच्चा कहाँ है? यह सुनकर उन नितम्बिनियों ने समस्त राजभवन खोज मारा और आकर रूपिणी से निवेदन किया कि हे माता,
उसे हम लोगों ने कहीं भी नहीं देखा।। छ।। उसको सुनकर रूपिणी पुनः रोने लगी और थरहराती कॉपती हुई वह महीमण्डल पर गिर पड़ी। वह प्रद्युम्न
14 (2) आकर्षति। 15) (1) मनोज्ञ।