________________
4.1.101
महाका सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित
155
चउत्थी संधी
जंहिं णिरंतर सीह-सद्दूल मय-गंडय बहुय गय,
वग्ध घोर किडि सय तरच्छहिं बुक्कारिय ।। छ।। वत्थु-छंद- साहा-मयहि रुजंत रत्तच्छ रिच्छहिं ।
घोर रीद्ध भत्तु व पवर जहिं । जसु तसइ भएण णिवि सिद्धेण तहिं वण गहणे वालु पराणिउ तेण" ।। उवहिहि2) अणुहरमाणु 'मज्झु 'पएसु विसालउ।
जो हरि-करि परियरिउ गिरिवरु णं महिपालउ ।। छ।। णहग्ग-लग्ग-मग्ग-तुंग-सिंगवे सु पुष्फ-रेणु रत्त-मत्त "पिंगवे । कहिं पि बच्छ-पवण-पहय कपिउ कहिं पि कीर-कुरर-सद्द जंपिउ । कहिं पि पडिय पुप्फ-पयर अंचिउ कहिं पि' साह उद्ध-वाह-णच्चिउ।
10
धार्थी सन्धि
धूमकेतु-दानव ने उस शिशु प्रद्युम्न को सक्षकगिरि की एक विशाल शिला के नीचे चौप दिया जिस तक्षक गिरि में सिंह, शार्दूल, मृग, गंडफ (गेंडाहाथी) अनेक प्रकार के गज, व्याघ्र एवं सफेद आँखों वाले सैकड़ों भयानक शूकर निरन्तर गरजते रहते हैं।। छ।। वस्तुछन्द- जहाँ पर रंजायमान शाखामृग (वानर) लाल नेत्र वाले भयानक विशाल भालू प्रचुर मात्रा में
हैं, जिनके देखने मात्र से त्रास होता है। महाकवि सिद्ध कहते हैं उसी पर्वत के गहन वन में वह सिद्ध दानव उस बालक को ले आया। वह गिरिवर ऐसा प्रतीत होता था, मानों कोई राजा ही हो। क्योंकि राजा घोड़ों एवं हाथियों के परिकर सहित होता है, यह पर्वत भी सिंहों एवं हाथियों से परिवृत था, अथवा वह पर्वत उदधि समान मन को हरने वाला था। समुद्र जिस प्रकार मनोहर होता है, यह पर्वत भी उसी प्रकार मनोहर था। समुद्र में जिस प्रकार विशाल
बापू प्रदेश रहते हैं उसी प्रकार इस पर्वत पर भी विशाल गहन वन-प्रदेश था।। छ।। उस पर्वत का उत्तुंग भंग नभ के अग्र को मग
पीत वर्ण का से रक्त वर्ण का होकर मतवाला हो रहा था। कहीं तो उसके वृक्ष पवन से प्रहत होकर काँप रहे थे, कहीं कीर (शुक) एवं कुरर पक्षी मधुर वाणी बोल रहे थे। कहीं वह पर्वत गिरे हुए पुष्प प्रकरों से पूजित था। कहीं वह पर्वत सुशाखाओं रूपी उर्ध्व बाहुओं से नाचता था। कहीं कोयल सुकुमार शब्दों में मधुर संगीत कर रही थी तो
(i) I. ॐ सहे भीन । 2. ॐ मु। 3.3 ।
+ : सुपं । 5. अ ने। 6. अ. वि.7बए।
(3) हा धूमकेतुना। 12) गमुद्रः ।