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________________ 52] महाकद सिंह दिराड पज्जपणारेज 13.12.7 सा सच्चहाव रूविणिवि देवि पसवियउ सुलक्खण पुत्त वेवि । आणंदु पवटिउ सज्जणाहँ मसि कुंपल मुझे दुज्जगा । बद्धावग्र पेसिय 'दुहिमि तेत्यु णिय राउले ठिउ महुमहणु जित्थु। जग्गइ ण विठु सोवंतु दिछु आवणे सो रूविणि णरु वइछु। उसीसि सच्चहावहि वसिछु जय-मंगल-र कर-मऊले कयंजलि णय-सिरेण वद्धाविउ ता रूविणि परेण। घत्ता- भीसम-सुयाहे सुउ अइ-सरल-भुउ पहु जेम सिवएविहि जिणवरु। रूविणि राणियहे गुरु जाणियहे उप्पण्णु तेण जण-मण-हरणु ।। 48 ।। (13) गाहा– पुणु सच्यहाव पुरिसो वद्धावइ देव पढम स महएवी । पसुबा'वि सच्चहावा जाउ सुउ रूविणिहि पच्छा ।। छ।। तउ हरि समुट्ठिउ हरिस्समाण1) हरी करविऊण हत्थु दिण्ण दाणउ। सम्माणिया देवि ते विसिट्ठ राइणा सुचेल-कणय तुरिय दिव्य दायिणा । एवं रूपिणी दोनों ही देवियों ने सुलक्षण सम्पन्न दो पुत्रों को जना। इससे सज्जनों को आनन्द हुआ किन्तु दुर्जनों के मुख काले हो गये मानों उनके मुख पर मसी की कूँची फेर दी गई हो। जहाँ राजकुल में मधुमधन स्थित था, वहाँ उन दोनों रानियों ने वर्धापन भेजा। विष्णु जगे हुए नहीं ये अत: उन्हें सोता हुआ देख कर रूपिणी के नर ऑगन में (पैरों की तरफ) बैठ गये। सत्यभामा के मनुष्य विष्णु के सीस की तरफ बैठ गये। “जयमंगल" शब्द सुनकर (जब) विष्णु प्रतिबुद्ध (जामृत) हुए तब हाथ मस्तक पर लगाकर अंजलि बनाकर तथा मस्तक नवा कर रूपिणी के मनुष्यों ने उन्हें बधाई दी, और कहाघत्ता- "हे प्रभु, जिस प्रकार शिवादेवी के जिनवर नेमिनाथ पुत्र हुए उसी प्रकार आपकी गम्भीर रूप से जानी हुई भीष्म-सुता रूपिणी रानी के अतिसरल भुजावाला और जनों के मन को हरने वाला पुत्र उत्पन्न हुआ है।। 48।। (13) पुत्र-जन्म एवं नाम-संस्कारोत्सव गाथा— तत्पश्चात् सत्यभामा के पुरुषों ने वर्धापन दिया "हे देव, आपकी प्रथम महादेवी सत्यभामा ने प्रथम ___पुत्र-प्रसव किया है और रूपिणी ने पीछे पुत्र-प्रसव किया है।। छ।। तब हरि (इन्द्र) के समान वह हरि (विष्णु) उठा। उसने (उन दोनों संदेशवाहकों के लिए) ऊँचा हाथकर दान दिया। उस राजा ने उन दोनों शिष्ट पुरुषों का सम्मान किया तथा तुरन्त ही दिव्य वस्त्र एवं कनकाभूषण प्रदान किए। उसने पटन में उत्तम महोत्सव कराया, जिसमें शत्रु राजाओं के समूह भी आये। (12) 7. अव। 113) 1. अ. 'आ। (13) (1) हर्ष संपृक्तः ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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