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3.10.15]
महाकद सिंह विरहाउ मज्जुण्णचरित
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(10) माहा– पुणु रूविणिहि भणिउ जेठो किन्जउ अम्हाणं ।
तुडिहि णिव्वाणहणं पडहुत्तणं" पि मन्नहु दोहिं पि व लोहु उत्ताभो।। छ।। गाहा– कण्हेवि कुरु-रिदो हरि सपसण्णावि बेवि णिय भवणे।
ता दिठ्ठ णिसि विरमे रूवणिए विसिटिव्य सिविणं ।। छ।। मयमत्त-गयं
मिलियालि सयं । विलुलिय-जीह
पुणरवि-सीहं। कल-कमल सरं
पेच्छईं पवरं। कण वि घणं
वरसालि-वणं। रूविणिए जिम
सच्चाइ तिमं । दोहिमि हरिहे
अरि तरुह विहे। फुडु वज्जरिउ
हरिसहो भरिउ। मणे तुटछु छुडु
हरि कहइ फुडु। हय-दुरिय खलु
सिविणयहो फलु । पीणत्थणीहि
दोहिमि जणीहि । होसंति सुया
दिढ-कदिण-भुया।
(10) रूपिणी एवं सत्यभामा के द्वारा एक समान चार-चार स्वप्नों का दर्शन एवं उनका फल-वर्णन गाथा- सत्यभामा की प्रतिज्ञा को सुनने के पश्चात् रूपिणी ने उससे कहा-ठीक है ऐसा ही करना। हमारी
सामर्थ्य रहते मरते दम तक प्रतिज्ञा टूटेगी नहीं और ऐसा मानों कि यह प्रतिज्ञा लोक में दोनों के लिए
उत्तम होगी।। छ।। गाथा— कृष्ण और कुरुनरेन्द्र दुर्योधन दोनों भी हर्ष से प्रसन्न हुए, अपने-अपने भवनों में रह रहे थे। तभी
रात्रि के अन्त में रूपिणी रानी ने चार विशिष्ट स्वप्न देखे ।। छ।। (प्रथम स्वप्न में) सैकड़ों अलिकुल जिस पर मिल रहे हैं (झूम रहे हैं) ऐसे मदमत्तगज को देखा । पुन: (द्वितीय स्वप्न में) चंचल जिहावाले सिंह को देखा। (तृतीय स्वप्न में) प्रवर मनोहर कमल वाले सरोवर को देखा तथा (चतुर्थ स्वप्न में) जिस में बहुत कशिश (वाले) लटक रही हैं, ऐसे उत्तम शालिवन को देखा। जैसे रूपिणी ने (उक्त चार) स्वप्न देखे, वैसे ही सत्यभामा में भी देखे। हर्ष से भरी हुई दोनों ही रानियों ने शत्रुरूपी वृक्ष को हरने वाले हरि को जाकर वे स्वप्न कहे। मन में अत्यन्त सन्तुष्ट हत-दुरित हरि ने स्वप्नों का फल तत्काल ही पीनस्तनी उन दोनों रानियों से स्पष्ट रूपेण कहा.--(इस प्रकार) "तुम दोनों के ही दृढ़ कठिन भुजावाले पुत्र उत्पन्न होंगे
(10) 1. 4.
12. ब. 'स। 3.ब हि"।
(10) (1) लागणं