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महाकइ सिंह विरइउ पउडण्णचरिउ
13.5.11
घत्ता– णिस णिरु परिमल-दहलु अलिउल-मुहलु कप्पूर-जाइफल-मीसिउ । वच्छ दुलहु भणेवि एउ मणे मुणेवि उग्गाल सुपट्टा पीसिङ ।। 41 ।।
(6) गाहा— एउ रूविणिस्स' कज्जे वद्धचेलंचलम्मि मण्णत्ती।
मुणिवि सुयंध दव्व सच्चाए बिलेवियं अंगं ।। छ।। ता उठ्ठि हरि कह-कह-हसंतु णियकर अप्फालिवि ताल दितु । हले वयण-णयण जिय ससि कुंरगि पणिउ जो पई लेविउ सुअंगि । जाइहल-एल-कप्पूर-धणउँ
उग्गालु सुयहु रूविणिहि तणउँ। ता कोदि पयंपइ सच्चहाव रे दुट्ठ पिसुण-खल-खुद्ध-पाव । गोवालय तुह केतडिय बुद्धि उवहासु करतहँ कवण-सुद्धि । रूविणि वि मज्झु सा ससि कणि जगालु सु वहे तुह काइँ घिछ । जइ लाविउ तो महु पत्थि दोसु सस हो य राइँ सहुँ कवणु रोसु । महुमहणु पयंपइ मिटुन जगणि
विधि कि दिदर गइ यापणि ।
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छत्ता... कर्पूर एवं जायफल से मिश्रित वह उगाल बहुत सुगन्धित एवं अलिकुल को मुखरित करने वाला था।
वत्स के लिए (यह) दुर्लभ है ऐसा कहकर और ऐसा ही मन में मानकर उसने उस उगाल को पट्टे (पटिये) पर पीसा ।। 41 ।।
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रूपिणी के उगाल का लेप कर लेने से हरि सत्यभामा की हँसी उड़ाते हैं। गाथा- "रूपिणी के निमित्त ही इसे वस्त्र के अंचल से बाँधा गया है।" ऐसा मन में कहती हुई तथा उसे अति
सुगन्धित द्रव्य जानकर सत्यभामा ने उसका अपने शरीर में विलेपन कर लिया ।। छ।। इस पर हरि कहकहा कर हँसते हुए उठे। वह अपने हाथों को फैला-फैला कर ताली बजाने लगे और बोले-- "हे हले, हे प्यारी, तेरा वदन चन्द्र के समान तथा नयन कुरंगी के समान हैं। (पई) तूने जो (यह विलेपन अपने) सुअंग में लगाया है। वह तो रूपिणी का जातिफल, एला. कपूर आदि घनी चीज वाला उगरल है।" तब कोप कर सत्यभामा बोली—"रे दुष्ट, रे पिशुन, रे खल, रे क्षुद्र, रे पापी – रे गोपालक, तेरी कितनी (कपट) बुद्धि है? उपहास करने में तेरी कौन सी विशेष बुद्धिमत्ता है? (अन्ततः) वह रूपिणी भी तो मेरी छोटी बहिन ही है। हे धीठ, तू उसका उगाल लाया ही क्यों? यदि लाया ही है (और मैंने उसका लेप भी कर लिया) तो इसमें मेरा दोष नहीं है। हे राजन, अपनी बहिन से रोष कैसा?" (मह सुनकर) मधुमथन ने कहा "हे पृथुल रमणि, क्या तुमने हंसगामिनी रूपिणी को देखा है?"
(5) 5. अ. 'पिस' नहीं है। (6) 1. अ. 'यहि । 2.. "। 3. अ. ज..