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3.5.101
महाकह सिंह पिरइउ पज्जुण्णयरित
पत्ता- तहिं तेत्तडइँ खणे णिउ चंदुज्जणे सो हरि बलएवइँ भणियउ ।
तहिं सुकेय सुयहे सुललिय-भुयहे मयण-सरहि तणु वण्णियउ।। 40।।
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गाहा– अणुणहि जाएवि पिय जाब ण बिहडेबि जाइ पंचत्तं ।
'पावहु अणुरत्तमणो जे तुमंतेण सा सुसए। । छ।। तं णिसुणेदि सो रूविणिहि कंतु घरु चलिउ सच्चहावहे तुरंतु । जं व ए वरु तवोलु खर्बु
जग्गालु सुचेलंचले णिबद्ध। गउ लेविणु जहि ठिय सच्चहाव वहु-विरह-जलप-संजणिय ताव । पिउ पेच्छिवि खणे जपइ ण जाव तेण संभासिवि अवगृह) ताम। रइहरि पइसे वि पिययम-पियाइँ गुण-दोस चववि सेज्जहिं ठिया । पुणु हसिवि रमेवि धुत्ताण-धुत्तु हरि कूडु-कवडु णिहाइ सुत्तु। घोलंतु सुकुंकुम लोल छेउ
अमुणंतियाइँ तहो तणउ भेउ ।। गंठिहि णिवडउ ता तीए दिछु मणे चिंतिउ किर जग्गइ ण विठु।
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पत्ता- जब वह नृपचन्द्र हरि उद्यान में था तभी उससे बलदेव ने कहा "सुकेतु की ललित भुजा वाली सुता सत्यभामा का शरीर मदनवाणों से व्रणित (घायल) हो गया है।। 40।।
6) सत्यभामा की विरहावस्था सुनकर हरि उसके आवास पर पहुंचते हैं गाथा- (बलदेव ने हरि से कहा कि ) -"जब तक वह सत्यभामा विरह पीड़ा से जल कर पंचत्व (मृत्यु) को
प्राप्त न हो जाय तब तक तुम जाकर प्रिया का अनुनय करो। अनुरक्त मन होकर उसका पालन करो,
जिससे तुम्हारे संयोग से वह आश्वस्त होवे।" ।। छ।। यह सुनकर रूपिणी का वह कान्त तुरन्त सत्यभामा के घर चला। रूपिणी ने जो उत्तम ताम्बूल खाया था उसका उगाल अपने वस्त्र के अंचल (छोर) में बाँध कर वह वहाँ पहुँचा जहाँ विरहाग्नि द्वारा उत्पन्न ताप से सन्तप्त सत्यभामा स्थित थी। प्रिय को देखकर भी क्षणभर तक जब वह नहीं बोली तब हरि ने ही सम्भाषण कर उसका आलिंगन कर लिया। प्रियतम और प्रिया दोनों रतिघर में प्रवेश कर तथा शैया पर स्थित होकर (पारस्परिक) गुण दोष कहने लगे। पुन: हँसकर तथा रमणकर धूर्तों में धूर्त वह हरि कूट-कपट-निद्रा पूर्वक सो गया। घोले हुए कुंकुम सहित वह लोल छेद (उगाल) था उसका भेद न जानती हुई उस सत्यभामा ने तब गांठ से गिरते हुए उस उगाल को देखा लब मन में वह चिन्ता करने लगी कि कहीं विष्णु जाग न जायें ।
(4) 5. धंद्र विष्णु। (61) मिष्ट वचनैः संबोधय। (2) अंचले। (3) श्रालिंगिता।
(5) 1.अ. नव'! 2. अ. 'अइ13.
'पा। A. अ. रे।