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________________ 42] 5 10 महाकर सिंह विरइज पज्जुण्णचरिउ घत्ता... वेवि सुसुंदरइँ णिरु बहु-वरहूँ दामोयरु-रूविण राणि । अणमिस-लोइट्ठिय सक्का (3) पिय किं सय (4) वारमइंहि आणिय ।। 39 ।। गाथा---- गाहा— बहु 'भोय-भुंजमाणो (4) णव-वहु महुमहणो अणुदिणु अणुरत्त-मणो फागुण दिगंत भासुर-वमणु वेइल्ल-मल्लि-फुल्लिर-दसणु अग्रवत्तु ( ) - कुसुम सुइज्जअ पवरु कलि-कुंद-पसूण तिक्खाहरु ता तहिं संपत्तु वसंतु-हरि इत्यंतरे परिपालिम - पयहो विरहेण सच्चहामा मरइ असुहत्थी तल्लो वेल्लि केम सरिसो पुरम् | अच्छइ रइ-लालसो जम्मि । । छ । । 'जासवण - कुसुम - लोहिय' - रणु । साहार र- लुलिय णव- दल - रसणु । रुणुरुणिर भमर - गुंजारि सरु । वहु मंजरि चवलुग्गिण्ण- करु । तहॊ भएण मणट्ठउ सिसिर (3) करि । रूविणि- मुहँ - पंकय-छप्पयहो । हूव पेम्म परव्वस किं करइ । थिय तुच्छ तोए तिमियणहो (1) जैम । पत्ता- दामोदर और रूपिणी रानी दोनों ही वर-वधु बड़े सुन्दर लग रहे थे । वे कैसे प्रतीत हो रहे थे ? मानों अनिमिष (स्वर्ग - देव) लोक में स्थित शक्र एवं उसकी प्रिया शची ही द्वारामती पुरी में ले आये गये हों ।। 39 1 (4) [3.3.11 वसन्त ऋतु का आगमन वह मधुमथन ( अपनी ) नववधु के साथ विविध भोगों को भोगता हुआ भी प्रतिदिन उसमें अनुरक्त मन से रति- लालसा के साथ वहीं रहने लगा । । छ । । ( 4 ) 1. ब. लो। 2. व. फग्गु । 3. ब. र । उसी समय वसन्त ऋतु रूपी हरि सिंह का आगमन हो गया। उसका बदन – मुख फाल्गुन के अन्तिम दिनों के समान भास्वर था। जपा कुसुम - समूह ही जिसके लोहित वर्ण वाले नेत्र थे । बेला तथा मल्लिका पुष्प ही मानों उसके दर्शन (दाँत ) थे। नव दलों से युक्त चंचल शाखाएँ ही उसकी जिह्वा थी । अतिमुक्त तथा अतिवृत्त कुसुम ही मानों जग में श्रेष्ठ उसके श्रुति-- कर्ण थे। रुण रुण करते हुए भ्रमरों की गुंजार ही मानों उसके स्वर 1 मनोहर कुन्द पुष्प ही मानों उसके तीक्ष्ण नख थे। अनेक चपल मंजरियाँ ही मानों उसके हाथ थे। इस प्रकार जब वह (वसन्त रूपी हरि सिंह ) द्वारावती में प्रविष्ट हुआ तब उसके भय से शिशिर ऋतु रूपी हाथी चुपचाप खिसक कर भाग गया। इसी बीच प्रजापालक तथा रूपिणी के मुख रूपी कमल के षट्पद . हरि के विरह से सत्यभामा मरने लगी। प्रेम की वशीभूत हुई वह (भला) कर ही क्या सकती थी? अत्यन्त दुखी होकर वह किस प्रकार तड़फती थी? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अत्यन्त जल में मछली । (3) (3) इन्द्रेण । (4) शची। (4) (1) कर्णदीयि।। (2) मनोज्ञ (3) सीतकाल हस्ती (4) मत्स्यजुगल
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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