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महाका सिंह विषउ पज्जुण्णधारउ
ता. इय विभिय मणहो जुबई जणही पेशंतहि लोयहिं दिछ ।
बलरूविणि सरिशु बढ़िया रिस पुलिस लाइ28
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गाहग..- दहि-दोवाल-चंदण णाणाविह कुसुम-फल्न समिद्धेहि ।
पिं लब्धत संचारो उद्धावतेहिं गायर-जणेहिं ।। छ।। परिपूरिउ मुत्लाहल-चक्क जल-भरिउ पुरि। मणि-कलस् मुक्फु। वर-पड़-पच्छाइय कणयवीढे भीसम-सुयाई सहु रयण-लीढे । उबविटा-विट्टु जणु सपतु महड णं जिणवरु खति-समाणः सहइ । बहु मंगल धवलुभासिणी
कावे गच्चति सुवासिणीउँ। कत्थवि ववहिं पडु-प'डह पवर कत्थान विपोय दिरइयहि अवर । तं पेछेवि मणे णायरहो हरिसु महमहुपा वि पुणु घण कणयवरिसु । तोसिपइँ विनिह दुत्थिय-जणाई जंदियण वि खुज्लव णाम"गाइँ। वलहद्द प्रयत्थइ पुणु वि दाणु रूविणि वि रणिण हरि णाइँ माणु।
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पत्ता-. इस प्रकार लोगों ने विह्वल मन से देखती हुई उन मुवतिजनों को देखा । इस प्रकार बढ़े हुए हर्ष वाले
उस हरि ने बलभद्र एवं रूपिणी के साथ पुरि द्वारामति में प्रवेश किया ।। 38 ।।
हरि एवं रूपिणी का द्वारामती के नागरिक जनों द्वारा अभिनन्दन गाथा- दधि, दूर्वा, अक्षत, चन्दन तथा नाना प्रकार के पुष्पफलों से समृद्ध "वृद्धि को प्राप्त हो" इस प्रकार
बधाई देने के लिए आये हुए नागर जनों की भीड़ के कारण हरि को संचार—मार्ग नहीं मिल रहा
था । 1 छ।। किसी ने मुक्ताफलो से चौक पूरा ते किसी ने आगे जलपूर्ण मणि का कलश रस्त्रा। उत्तम पट से प्रच्छादित कनकमय रत्नों से लीढ़ (खचित) पीठ पर भीष्म सुता—रूपिणी के साथ बैठा हुआ विष्णु लोकों द्वारा पूजा गया। वह ऐसा प्रतीत होता था मानों क्षमा समान जिनवर ही सुशोभित हो रहे हों। कहीं तो धवल रूप चमकती हुई सुवासिनियों अनेक विध मंगलगान करती हुई नाच रही थी और कहीं-कहीं महाप्रवर पटु-पटह बज रहे थे और कहीं-कहीं विनोद रचने वने विनोद कर रहे थे। उम हरि को देख कर नागर जनों के मन में बड़ा हर्ष हुआ। पुनः मधुमथन ने भी घनी कनकवर्षा की (स्वर्ण दान दिया)। विविध दुःखीजनों, बन्दीजनों एवं क्षुद्रजनों को भी मनोवांछित रूप से सन्तुष्ट किया। पुन. बलभद्र ने भी दान दिया। रूपिणी ने हरि की तरह ही अन्य रानियों का भी मान किया।
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2011 1112 दे।