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________________ 38] महाका सिंह विरइड पज्जुण्णचरिउ [2201 (20) वई हउ सो तेण) कठे वक्खर मणि-मय-कुंडल-मउड-मंडियं । __ रण सरवरि वि सेवि सुक्खंगइ3) सिर-कमलं पि खंडियं ।। छ।। रूवकुमारहो बलहद्दइँ-बलु पाण-सेस किउ कोवि विहलंघलु। कोवि दस-दिसहिं पणट्ठङ जाम हिं रूवेण हलि वि पिसक्केण ताम हिं। ह) वछयलेण तहो तणु भिंदिउ वलहद्देणावि तहो “धणु छिदिउ । कण्णिय-वाणे हणेवि थणंतरे जा भणेइ किर वइवस-पुरवरे। ता रूविणि हिय-वयणु परियाणिउ सो फणि-पासइ बंधिवि आणिउं । पुणु भइणीए भाइ मेल्लाविउ कुंडिणपुरे णिय-णिलयहो पाविउ। बहु संजुउ चउरंग-समिद्धउ रहु खेडवि हरि चलिउ पसिद्धउ । घत्ता- हरि वलहटु दि वेवि हरिसइ अंगे ण माइय। रूविणि जय-सुपसिद्ध-पुरि-वारमइ पराइय ।। 36 ।। इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्थ-काम-मोक्खाए कइ-सिद्ध-विरझ्याएं वीउ संधी परिसमत्तो।। संघी: 21। छ।। 10 (200 शिशुपाल-वध एवं हरि का रूपिणी के साथ द्वारावती वापिस लौटना द्विपदी- सरोवर में उत्पन्न कमलनाल के तन्तुओं को खाने वाला चक्रवाक पक्षी जिस प्रकार कमल को खंडित करता है उसी प्रकार उस हरि के चक्र ने रण रूपी सरोवर में शिशुपाल के कण्ठ में लगकर बख्तर और मणिमय कुण्डल तथा मुकुट से मण्डित शिर कमल को खण्डित कर दिया।। छ।।। बलभद्र ने निश्चय से रूपकुमार का प्राण शेष कर दिया अर्थात प्राण बचा दिये। तब कोई तो विफल होकर भाग गया और अन्य अनेक दशों-दिशाओं में भाग गये। रूपकुमार ने भी हली को छोड़ दिया। हयग्रीवहर हरि ने शिशुपाल का शरीर भेद दिया। बलभद्र ने भी उसका धनुष छेद दिया और वक्षस्थल में अपने कनिक बाण को मारकर उस शिशुपाल से कहा—“अब यमपुर में वास कर।" __ इधर उस रूपिणी के हृदय एवं मुख से उसकी अन्तरंग भावना को जानकर उस शिशुपाल को नागपाश में बाँध कर उसके सम्मुख ले आये। पुनः भगिनी से भाई का मिलाप कराया गया और कुण्डिनपुर में उसे अपने घर पहुंचा दिया गया। वधु सहित चतुरंग सेना से समृद्ध वह प्रसिद्ध हरि भी रथ को खदेड़ कर चल दिया। घत्ता- हरि और बलभद्र दोनों के ही अंगों में हर्ष नहीं समाया। दोनों ही रूपिणी सहित जगत् में सुप्रसिद्ध द्वारमतीपुरी को लौटे ।। 36।। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली, कवि सिद्ध विरचित प्रद्युम्न कथा में शिशुपाल वध एवं रूपिणी-कन्यापहरण नामकी दूसरी सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 2।। छ ।। (20) 14. प। 2. अ. ""13. 'व4, अ. त। (20) (1) सिसुपाल: । (2) चक्रेण । (3) चक्रेणसि चक्रताके। 5.अ० सिसुपास-दहणं निणि-कन्नाहरणं णाम । (4) रुपकुमारेग। (5) मारपित्वा । (6) वधु संजुक्तः । (7) जगति ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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