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[2.18.3
तं णिसुणेवि सिसुपालु पलित्तउ सत्तच्चि व घिय-घडेण पसित्तउ । हरिहे वाण पंचास पमेल्लइ ते णारायणु दसहिं पपेल्लइ। सिसुपालइँ सर सर पमुक्कर सोया णारायण-पासु ण हुक्कड़। वीसहि सरहिं कियउ सय सक्कर) वज्जु णिहायइँ णं गिरिकक्करु। पुणु सिसुपाल मुबइ सर धोरणि विणित्रि अतुल-पयंड-महारणे। इयहरि सिसुपालहो रणु वट्टइ । भड-धड़ वलहो भिडिवि आवट्टइ। सुण तुरंगु सुण करि सुण रहवरु । सुण धउ-छत्तु चिंधु सुण णरवरु । जोणा सीरिहिं सर पहरहिं भिण्णा कासु वि सिर कर-सुवलु वि छिण्णउँ। कासु वि अंतावलि णिय गिद्धहिं सिर करोडि पुणु अंजण सिद्धहिं । तणु सिवाहि जीविउ सुर-गणियउ जसु पुणु विष्णु भडेण णिय-धणिय" । घत्ता- इम चाउ करेविणु अंतयाले गउ कोवि भडु ।
कासु वि सिरु पडिउ असि भामिरु रण णडइ घडु।। 34 ।।
अरिदमन का कथन सुन कर शिशुपाल उसाप्रकार क्रोध से प्रज्ज्वलित हो उठा जिस प्रकार घी के घड़े से सींची हुई सप्तार्चि की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो जाती है। शिशुपाल ने हरि के ऊपर पचास बाण छोड़े। नारायण ने उसके उन बाणों को केवल दशा बाणों से ही पेल दिया (निरर्थक कर दिया)। पुन: शिशुपाल ने सौ बाण छोड़े। किन्तु वे नारायण के पास तक भी न पहुँच सके। नारायण ने अपने बीस बाणों से उन बाणों को उसी प्रकार खण्ड-खण्ड (शत-खण्ड) कर डाला, जैसे बज्र के घातों से पर्वत खण्ड-खण्ड में बिखर जाता है।
पुन: शिशुपाल ने धोरिणी नामक बाण छोड़ा। दोनों का अतुल प्रचण्ड महारण हो रहा था। इस प्रकार दोनों हरि एवं शिशुपाल के रण में भड समूह बलभद्र से भिड़ते थे और लौट जाते थे। उस युद्ध में तुरंग शून्य हो गये, गज शून्य हो गये और रथवर भी शून्य हो गये। (अर्थात्) घोड़ा, हाथी एवं रथ सभी नष्ट हो गये। ध्वजा, छत्र, चिह्न भी शून्य हो गये। अनेक नरश्रेष्ठ भी शून्य हो गये।
ऐसा कोई नहीं बचा जो सीरी (बलभद्र) के शर प्रहारों से छिन्न-भिन्न नहीं हुआ हो। किसी का शिर और करयुगल छिन्न हो गया तो किसी की अंतावलि (अंतड़ियां) गृद्ध पक्षी ले भागे। करोड़ों सिर अंजन सिद्ध ले भागे। शिवा (शृगाली) ने किसी के शरीर को जीवित स्वर्ग पहुँचा दिया (खा लिया), तो किसी सुभट ने अपनी धन्या को यश प्रदान किया। घत्ता- इसी प्रकार कोई भट अंतकाल में शरीर त्यागर कर चला गया। तो किसी सिरकटे भड़ का धड़ तलवार
घुमाता हुआ रणभूमि में नाचने लगः ।। 34 ।।
(18) 2. अ. 'ग्णा'
ब
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(A) (2) अग्नि (3)
(6) देवगनयां।
-सहा 147 मेगा 15 रातषड़ । तागिनः ।