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________________ 34] 10 महाकद सिंह विरह परावरि संगाम - तूर जहिं पवर रसिय पभाई महु कारणे किउ अज्जत्तु तं णिसुणिवि भणिउ जणद्दणेण सुणि सुंदरि महु पडिमल्लु णत्थि अहवा पच्चउ दक्खवमि मुद्धि पवि-मणिवि सअंगुच्छलउ लेवि अवरूवि पडिपर पुणु विवाल घत्ता----. एक्कहु-एक्कु ण मिलइ जो (4) खल इव अइ विसमठिय । ते एक्के वाणेण जइ-पइ दो (17) खंडी तं णिसुणिवि कुवियर वासुएउ सत्त वि पाडिय एक्कें सरेण देव तहिं अवसरे रूवाए वि तसिय । तुम्ह किर ए जणवलु बहुतु । एव दण | सहु सरेहिं रण करहि हत्थु । सुणि सुंदरि णिय 'कुलवंस - सुद्धि । संचरिउ पियकरमलेहि णेवि । दुबई— ता तह होहि देव णारायणु एह संदेहु तुट्टाए । अहवण कुणहि ताल-परियट्टणु " तो महु 'संति भ‌ट्टएँ । । छ । । जइ खुडहि खुरप्पइ सत्ततार | किय ।। 32 ।। (16) 2. अ. और अ. में 'हिं' नहीं है। (17) 1. 2. अं. वंदए। 3. अ. ह । अहिमुह(2) चप्पिवि किउ ताल छेउ । तिउरहो (3) पायारवि णं हरेण (4) किया गया है। आकाश में क्या तुम्हारा जनबल बहुत है?" उसका कथन सुनकर देवकी वसुदेव के नन्दन जनार्दन ने कहा- "हे सुन्दरि सुनो, मेरे समान प्रतिमल्ल (दूसरा मल्ल) नहीं है। मैं बाणों से नहीं हाथ से रण करता हूँ, अथवा हे मुग्धे, मैं प्रत्यक्ष ही दिखा देता हूँ। अपने कुलवंश की शुद्धि स्वरूप हे सुन्दरि, सुनो तभी जनार्दन ने अपनी अँगूठी में जड़े हुए वज्ररत्न को निकाल कर अपने ही करतल से चूर-चूर कर डाला। यह देखकर भी वह बाला रूपिणी पुनः बोली - "आप ऐसे सात ताल वृक्षों को खुरपा से काटो । " घत्ता........ "जो एक से एक नहीं मिला हुआ है और जो खल - - दुष्टों की तरह विषम (ऊबड़-खाबड़ ) रूप से स्थित हैं। उनके क्या तुम अपने एक ही बाण से दो-दो टुकड़े कर सकते हो ? " ।। 32 ।। [2.16.6 (17) शिशुपाल एवं रूपकुमार (रूपिणी का भाई ) हरि-बलदेव से भिड़ जाते हैं द्विपदी — तभी मेरा सन्देह टूटेगा और मैं तुम्हें नारायण - कृष्ण समझँगी और यदि तालवृक्ष को नहीं काटोगे तो मेरे मन की शान्ति भ्रष्ट हो जाएगी । । छ । । रूपिणी का कथन सुनकर वासुदेव कुपित हो उठा और बोला- “ताल वृक्षों का छेदन तो क्या मैं तो सर्प के मुख को चाँप कर उसके विष का भी छेदन कर सकता हूँ।" यह कहकर उसने उन सातों ताल वृक्षों को एक ही बाण से पाड़ दिया। ऐसा प्रतीत होता था मानों महादेव ने त्रिपुर के प्राकार को ही पटक दिया हो । (16) (4) जेहक्षा | (17) (1) परिवर्तनं । (2) सर्वमुच्वं (3) त्रिपुरदैत्यस्य जथा । (4) ईश्वरेण ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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