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2.16.5]
महाका सिंह विरइउ पज्जुषणचरिउ
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णयण-ससंक वंक करि जोबइ तणु झंकइ संकु सइव ढोयइ । अइ सवीड पर पासु ण छंडइ हरि-हलि लज्जइ कि अदरुंडइ। इय चिंतिवि णियमणे गंजोल्लिय अवरंडेवि पिय रहवरे घल्लिय । पूरिवि पंचाणणु तहिं तुरियन णं जयसिरि लेविण णी सरिया।
ता उच्छलिउ गरुज कोलाहलु सण्णज्झइ सिसुपाल महाबलु । घता .. हिलि-हिलंतु हय घट्टरणे पक्खारिय गय वि गुड़िय। कय सण्णाह पयंड राउ रूवि जोहिवि चडिय ।। 31 ।।
(16) दुवई— ता पडु-पडह ढक्त भेरी-रव-पूरिय दिम्मुंहतरा।
कडुबि' हडबि ण जाइ भम संकडे मिलिय अणेय णरवरा ।। छ।। सिसुपाले भीसम णंदणेहि
संचल्लहिं हरि-करि संदणेहिं । बहु छत्त-चमरामरु धय-धयेहि रण-खंभ-कोत मोग्गर-सएहि । कुतयहिं णिविड-सिक्किरि-घणेहिं रवियर-छाइय णं णाहि घणेहिं ।
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संकुचित शरीर हो रही थी। वह अपने शरीर को कीलित हुए के समान ढो रही थी। इह अत्यन्त लजा रही थी। परन्तु (हरि के) पास को नहीं छोड़ रही थी। हरि और हलि उसका स्पर्श करने में लजा रहे थे. कि उसका स्पर्श कैसे करें? ऐसा अपने मन में विचार कर हरि ने गंजोली हुई रूपिणी को पकड़कर अपने श्रेष्ठ रथ में घाल लिया (पटक लिया) और वहाँ तुरन्त ही हरि ने पाँचजन्य शंख पूर दिया (बजा दिया)। ऐसा प्रतीत होता था मानों वह जयश्री को लेकर ही निकल पड़ा हो। उससे वहाँ बड़ा भारी कोलाहल हुआ, उसे सुनकर शिशुपाल की महासेना तैयार होने लगी। घता- लौह कवच धारण कर प्रचण्ड राजरूप योद्धा हिनहिनाते हुए घोड़ों तथा अपने शरीर को पखारते हुए हाथियों पर सवार होकर रणभूमि में एकत्रित होने लगे।। 31 ।।
(16) युद्ध की तैयारी : रूपिणी जनार्दन की परीक्षा लेती है द्विपदी.... तभी पटु-पटह ढक्क एवं भेरी के शब्दों से दिग-दिगन्तर भर उठे। विकट कटक में भी (युद्ध का) भ्रम न रहा। संकट में अनेक नर-श्रेष्ठ आ मिले।। छ।।
अनेक छत्रों तथा चमरों से युक्त राजा शिशुपाल एवं राजा भीष्म के राजकुमार पवन से प्रेरित सैकड़ों ध्वजाओं वाले घोड़े, हाथी एवं रथों द्वारा चले। उनके रणखम्भ, कोंत, मुद्गर अत्यन्त भयानक कुन्त तथा घनी सिकड़ियों से सूर्य की किरणें भी ढंग गयीं। ऐसा प्रतीत होता था मानों आकाश को घने मेघों ने ही बँक लिया हो। जब संग्राम का प्रवर तूर बजा तभी रूपिणी श्रस्त हो उही और बोली—"मेरे कारण ही यह अयुक्त कार्य
। 7.4. 'ह।
(15) 5. अ.३। 6. अ द (16) 1. सं नहीं है।
(15) (4) पचजनु संख्छु । (16) (1) कटकु । (2) रुक्मकुमार। (3) नि.रणा ।