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मष्ठाका सिंह बिरहज पज्जण्णचरित
[2.14.8
दूसहि रवि-गम-छिहि दूसियण माहबहु भूसंणहिं विभूसिय। कत्थवि मत्त-महागय-गजिय कत्यवि डउडिउ करह पज्जिय। कत्थवि चक्ल-तुरंग- महरवर कत्धवि सुहर्ड णिसिय असिवक्खर । इय मेच्छंति काम-सुर भवणहो गयवर तिय पच्छिम लय भवणहो।
तहि तहो अमरहो पुज्ज करेंविणु" पुणु णिग्गय मणे विठु 'धरेविणु घत्ता— ता सहसत्ति णिएहि हरि-वलहद्द ससंदण। परवल-दलण पमंड सक्कव पडिसक्कंदण।। 30।।
(15) दुवई— रहिउ'यरेवि) झत्ति महुमहणें अंचले धरिय तक्खणें ।
रूविणि भणिय तेण है- सुंदरि हउँ सो हरि सुलक्खणे।। छ।। तुह कब्जें गिरिवण येदि णु इह आयउ वारमइ मुएविणु। करि पसाउ चडु-चडु लहु संदणु एम पयंपइ जाम जणद्दणु। ता वालिय अह समुहँ णिहालइ चरणंगुइँ धर पोम्हालइ।
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दूष्य तम्बुओं से सूर्य की किरणें तक रुक जाती थीं। वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों महीप के भूषणों से विभूषित (तम्बू) हों। ___कटक में कहीं मत्त गज गरज रहे थे, कहीं ऊँट बलबला रहे थे। कहीं महाखुरवाले चपल तुरंग हिनहिना रहे थे। कहीं निशित (तीक्ष्य) असि वाले सुभट बख्तर (कवच धारण किये थे। यह देखती हुई वह उत्तम स्त्री रूपिणी भवन के पश्चिम भाग से कामदेव के भवन में प्रविष्ट हुई। वहाँ उसने कामदेव की पूजा की फिर मन में विष्णु को धारण करती हुई वहाँ से निकल पड़ी।। पत्ता- तभी उस कन्या ने सहसा ही परवल (सेना) दलने में प्रचण्ड शक की तरह प्रतीन्द्र–प्रतिनारायण हरि
और बलभद्र को रथ में देखा ।। 30।।
(15) जनार्दन रूपिणी को उठाकर रथ में बैठा लेते हैं और पाँचजन्य शंख फूंक देते हैं। युद्ध की तैयारी
द्विपदी— सहसा ही रथ से उतर कर मधुमधन ने तत्क्षण उस रूपिणी का अंचल पकड़ लिया और बोले---- "हे सुलक्षणे, हे सुन्दरि, हे रूपिणि, मैं वही हरि हूँ" || छ।।
__ "केवल तुम्हारे लिए ही मैं द्वारावती को छोड़ कर पर्वतों एवं वनों को लाँघता हुआ यहाँ आया हूँ। अब कृपा करो। शीघ्र ही रथ में चढ़ो।" जब जनार्दन ने इस प्रकार कहा। तब वह बालिका नीचे की ओर देखने लगी और चरण के अंगूठे से धरा (भूमि) पोलने लगी तथा सशंकित होकर अपने बाँके नेत्रों से देखने लगी। वह
(14)4.3 "गि। 5. बस। 6. अ "मिः। 7. अ : (15)1. अ 'परे। 2. अ. "ग'। 3. अ. "मि'। 4.3 मि
(14) 13) किरण । (4) तीक्ष्ण । (15) () /24|| (2) विल्लुना | 13स्पर्शयति ।