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2.14.7]
मष्ठाका सिंह विराउ पज्जुण्णचरित
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रहे मण-पवण-वेय-हय-जुत्तिय जो कुस-कुसल सील णं सोत्तिय । वहु पहरण 'परिपूरिय संदणु तहि वलहद्दु चडिउ स जणद्दणु । अरिदमणु वि सारहि आरुढउ विविह महाहवे) जो णिब्बूढउ ।
वाहिउ रहुरहसेण ण माइय कुंडिणपुरहो गियड संपाइय। घत्ता-- तहिं थाइवि णारेण सुरसंदरे राउले गंपिणु । हरि-वलहदु पहुत्त फूइय दाविय सण्ण करेविणु। 1 29 1 |
(14) दुवई-.. भीसम ससए ताम सा रूविणि बुच्चइ जाहिं तेत्तहि ।
पुज्जण-मिसेण काम सुरमंदिरु बहिरुज्जाणु जेत्तहिं ।। छ।। तहि अवसरेसिंगारु करेविणु रूविणि सिवियानाणे चेडविणु। रायकुमारिहिं सेविय सुंदरि
अच्छरविंदहि णाइ पुरंदरि। वाहिरे कुंडिणपुर हो विणिग्गय णं गणियारि) गयहो सम्मुह गय । णियइ कडउ बिभालके केरल
मिा, अरहिनि जणेरउ । पुरवाहिरे आवासु पदिण्णउँ गुहर मंडविरहिं संच्छण्णउँ।
वेग वाले घोड़े जुते हुए थे। वे घोड़े कुश में कुशल थे। वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों कुश चढ़ाने में कुशल स्वभाव वाले श्रोत्रिय-ब्राह्मण ही हों। साथ में अनेक प्रकार के प्रहरणों (आयुधों) से भरे हुए स्यन्दन (रथ) भी थे। ऐसे रथ पर जनार्दन सहित बलभद्र चढ़े । नाना प्रकार के युद्धों में कुशल अरिदमन नामका सारथी भी चढ़ा। रथ को चलाता हुआ वह इतना हर्षित था कि वह उसमें समा नहीं रहा था। इस प्रकार वह कुण्डिनपुर के निकट जा पहुंचा। घत्ता- हरि बलभद्र प्रभृति को वहीं ठहर कर नारद सुरसुन्दरी के राजकुल में गया और रूपिणी की फूफी सुरसुन्दरी को संकेत कर दिया। सुरसुन्दरी ने भी कपिणी को संकेत करा दिया।। 29 ।।
(14) फूफी (सुरसुन्दरी) के आदेश से रूपिणी नगर के बाहरी उद्यान में कामदेव की पूजा हेतु आती है
द्विपदी— तब राजा भीष्म की बहिन सुरसुन्दरी ने उस रूपिणी से कहा—"तुम नगर के बाहिरी उद्यान में पूजा के बहाने कामदेव के मन्दिर में जाओ।"
उसी समय उस रूपिणी ने शृंगार किया। राजकुमारियों से सेवित शिविका-यान में चढ़कर वह कुण्डिनपुर से उसीप्रकार बाहर निकली जैसे मानों शत्रु गज के सम्मुख हधिनी जा रही हो। वहाँ (मार्ग में) वह देवों को भी विस्मित करने वाले शिशुपाल के कटक को देखती है। कटक को नगर के बाहर आवास दिया गया था, जो सुघड़ मण्डपों से संछन्न था।
(13) 5-6. अ जैसासस्थ। 7. 3. गरिसूरियव. परिय। (14)1.अ प्पि । 2. अ. 'उ। 3. अ. "वि।
(13963) संग्रामे। (4) समर्थ 145) स्या: फूफी । (14) (1) हत्तिनी : (2) जन्द्रकंटकं ।