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________________ 301 10 5 महाकर सिंह विज पज्जुणचरिउ तहो (3) कणिड एह सव्वं सुलक्खण दिवसे विवाह हवेस तिउराहिउ (") नं तिउर (*) - पुरंदरु ) तहो सिसुपाल णामु रणे दुरु । रूविणि पाणिग्गणे स साइणु । मंगल-तूर लक्ख णिग्घोसहिं । रूविणि नाम धीय सुविमक्ख‍ । चेइवइहि हत्थे (*) लग्गेसइ । भड परिमिउ हय-गय-रहवाहणु तर्हि संपत्तु पट्टिय तोसहि पत्ता- पुरवरे रत्था सोहें घरे-घरे गुडि उद्धरणु किउ । घरे-घरे मंगल-सद्द घरे-घरे कलस दुवारे ठिउ ।। 2811 (13) दुबई— घरे-घरे तोरणइँसुविसालइँ घरे-घरे तूर वज्जए । सिसुपालहो पवेसे कुंडिणपुरे णं णवमेहु गज्जए । । छ । । तं णिसुणेवि जलणु व घिय सित्त सिसुपालहो णामेण पलित्तउ । उठिउ सिंहासनही जणद्दणु REET अत्थाणु विसज्जिउ भर्म-धर्म-रह ममगइँ चल्लिय जो रण भरे भइ थड- 'कयमद्दणु । कुंडिणपुरहो पयाणउ सज्जिउ " । मंडलिय वि सामंत वि वालिय (2) 1 (12) 3. अ प ब ए नामकी एक पुत्री है। आज से चौथे दिन उसका विवाह होगा । चेदिपति के साथ उसका लग्न होगा। वह चेदिपति त्रिपुराधिप है अथवा मानों वह त्रिपुर पुरन्दर ही है। रण में वह दुर्धर है। उसका नाम शिशुपाल है। अपरिमित भट, हय, गज, रथ, वाहन जैसे साधनों के साथ वह रूपिणी के साथ पाणिग्रहण करने हेतु वहाँ जा पहुँचा है। वह मंगल तूरों के लाखों निर्घोषों के साथ सन्तुष्ट होकर वहाँ रह रहा है। घत्ता उस उत्तम नगर की गलियों गलियों में शोभा की गयी है तथा घर घर में गुड़ियों के उद्धरण (चित्रण) किये गये हैं। घर-घर में मंगल शब्द — गीत हो रहे हैं तथा घर-घर के दरवाजों पर मंगल कलश स्थापित किये गये हैं ।। 28 ।। (13) 1. अ. 'ड' 2 अ उ । 3. अ. 54. अन [2.12.6 (13) जनार्दन सदल-बल कुण्डिनपुर पहुँचते हैं। नारद रूपिणी की फूफी को चुपचाप संकेत कर देता है द्विपदी -- घर-घर में सुविशाल तोरण बनाये गये हैं। घर-घर में बाजे बज रहे हैं। राजा शिशुपाल के कुण्डिनपुर में प्रवेश करने पर वे बाजे नवीन मेघों के समान गरज रहे हैं । । छ । । नारद का कथन सुनकर तथा शिशुपाल का नाम सुनते ही वह जनार्दन घी सींची हुई अग्नि के समान प्रदीप्त हो उठा। रण के मध्य में भटों के थड (समूह) का मर्दन करने वाला वह जनार्दन सिंहासन से उठा । बलभद्र ने भी अपना आस्थान छोड़ दिया और दोनों ने कुण्डिनपुर की ओर प्रयाण की तैयारी की। वे घूमते हुए रहस्यमय गति से चले। साथ में माण्डलिक और सामन्त भी बुला लिये। रथों में मन तथा पवन से भी अधिक (12) (3) रूपकुगारस्य । (4) शिशुगालस्य (5) त्रिपुराधिप । (6) ईश्वरः । (7) इन्द्र । (13) (1) दस । (2) व्याघुटिताः ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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