________________
!
26]
10
महाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिउ
बलहद्दु सहोरि अतुल थामु जसु हंसु जासु तिहुवण माइ चभुव जसु रणे परवल णिसुंभु महु' महणो को पडिल्लु अत्थि घत्ता— सो संपहि" वल वलिउ 12 वसुह तिखंडहिं गहिमकर । जग को तो सम सरिसु सिसुपाल जेण किउ दुक्करु ।। 24।। (9)
दुबई— सुरसुंदरिहि वयणु पुणजोएवि रूविणि मणे विसरण' या । ता णारएण भणिय थिरु सुंदरि तुहु पर भुवणे धणिया । । छ । । अरि-असुर - खयर-रपरिषेतिय तु जाणो । कमलिणिहि हरिसु जिम जणइ मित्तु ते' ताह दुहुमि सुणि मिलिउ' चित्तु तहिं अवसरे जग जं सारभूउ लेहाविउ पहि+ रूविणिहि रूउ ।
ससिफल हे लि'हाविउ जेण जामु । वएव सुवह विक्खाय भाइ । दिढ कढण वाहु जग भुवण स्तंभु | पेसइ विवक्खु जसु णयर पंथि ।
10
[2.8.7
5
का सहोदर भाई है । वह कृष्ण ऐसा प्रतीत होता है, मानों बलभद्र रूपी शशि फलक पर कृष्ण रूपी रात्रि का ही लेखन कर दिया गया हो। जिस (कृष्ण) का धवल यश तीनों लोकों में नहीं समाता, जो सर्वत्र विख्यात है, वसुदेव का पुत्र है, जिसकी दृढ़ एवं कठिन भुजाएँ रणभूमि में शत्रुओं का संहार करती रहती हैं और जो जग रूपी भवन के लिये खम्भे के समान हैं। अपने शत्रु को यम के नगर के मार्ग में भेजने वाले उस मधुमथन के सामने दूसरा कौन पराक्रमी हो सकता है?
घता
उस हरि - कृष्ण ने इस समय अपने पराक्रम से पृथिवी के तीनों खण्डों को अपने अधिकार में ले लिया है । अत: इस संसार में उसके समान और कौन हो सकता है और वह शिशुपाल, जिसने अनेक दुष्कर्म किये हैं, उसकी उस कृष्ण से क्या समता ? ।। 24।।
(8) 5. ब. जि। 6. अ. "अ' 7. धं वा । 8 अ णाई।
9. य हो। 10. अ. में । 11. अ. इ। 12 अलिंग ।
(9) 1. "न्मि । 2. म. तिब्। 3. अ व 4. अ. हि.. ब ड़े।
(9)
नारद उस रूपिणी की प्रतिच्छवि तैयार कराता है। रूपिणी का नख-शिख वर्णन
द्विपदी - सुरसुन्दरी के मुख को देखकर रूपिणी पुनः मन में विस्मित हुई। तब नारद ने स्थिर होकर कहा - हे सुन्दरि तू इस नरलोक में धन्य है । । छ । ।
—
— अरि असुर, खचर और नरों का मर्दन करने वाले जनार्दन से तू परणी (विवाही) जायगी। जिस प्रकार मित्र (सूर्य) के दर्शन कर कमलिनी हर्षित हो उठती है (उसी प्रकार वह रूपिणी भी प्रफुल्लित हो उठी ) । दुःखी उस रूपिणी का चित्त हरि - कृष्ण से जा मिला ।
उसी अवसर पर जगत् में सारभूत उस रूपिणी के रूप की प्रतिच्छवि का लेखन कराया गया। उसमें उसके