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________________ 2.8.6] महाकह सिंह विरड पज्जुण्णचरित [25 सुर-सुंदरि णामइँ गुण-गरि तहिउ बोलिहिं रुप्पिणी वइछु । ससिम इंणि एतहो किउ पणामु रूविणिए णमंसिउ कलह-धामु। सा पेछेवि मणे हरिसेण भिण्णु। शिव-दुहियहे आसीवाउ विष्णु । तुहु होहि पुत्ति गुण-गण मणोज य किंहि महुमहणहो तणियसज्ज । तं णिसुणि विच्छविणि मुणिहि वयणु पुणु हसिवि णियइ फुफुय हे वयणु। पत्ता- हउँ सिसुपालहो दिण्ण दसमइँ वासरे परिणयणु । हुअ सामग्गि असेस अवरु चयइ किं गुणिरयणु।। 23 || दुधई— तातहि तासु' वहिणि पडिजंपइ आसि तिणा णे भासियं। रूविणि चक्कवइट्ठि परिणेसइ तं एहि पयासियं ।। छ।। रिसि णारउ जंपइ तुम्ह कहमि मणे वसइ महारईं तं णरहमि । कहिं परिमाणुउँ कहिं कणयसेलु कहि वक्कलु कहिं देवंगु वेलु। कहिं पंचाणणु कहिं वण-कुरंगु कहिं अरुहणाहु कहिं किर अणंगु । जो कंसु-केसु-चाणूरदमणु जं कहिं सो हरि तहिं सिसुपाल कवणु। जाने से बोलते थे। चन्द्रवदनी उस रूपेणी । उस कलहधाम नारद को प्रणाम कर नमस्कार किया। उस नृप-सुत्ता को नमस्कार करती देखकर वह नारद मन में बड़ा हर्षित हुआ और आशीर्वाद दिया--"गुण-गणों में मनोज्ञ हे पुत्री, तुम मधुमथन-कृष्ण की भार्या बमोगी। उस छविनी (रूपवती) रूपिणी ने मुनि के उस वचन को सुनकर पुन: हँसकर फूफू (फुवा) के मुख की ओर देखा। घत्ता-- तब उस फूफ ने (नारद से) कहा-"मैंने तो रूपिणी को शिशुपाल के लिये दे दी है। दसवें दिन विवाह होगा। विवाह की समस्त सामग्री तैयार हो गयी है। हे गुणिरत्न ! और क्या कहें?" || 23 ।। (8) नारद रूपिणी को हरि-कृष्ण का परिचय देता है द्विपदी— बहिन सुरसुन्दरी का कथन सुनकर राजा भीष्म ने कहा---"मति, श्रुति एवं अवधि रूप तीन ज्ञानों के धारी (मुनीश्वर--) नारद ने (जो) कहा है (वह अन्यथा कैसे हो सकता है)। (अब) रूपिणी का विवाह चक्रवर्ती (कृष्ण) के साथ होगा, यह स्पष्ट है।" ___ऋषिवर नारद ने कहा—"मैं तुम्हें कह रहा हूँ कि महाकामी नराधम उस शिशुपाल के मन में तुम कैसे स्थान पा सकती हो? (तुम्हीं सोचो कि---) कहाँ तो तुच्छ परमाणु (के समान शिशुपाल) और कहाँ कनकाचल (सुमेरु के समान वह मधुमथन कृष्ण)? कहाँ तो (तुच्छ) छाल और कहाँ देवंगलता? कहाँ तो पंचानन और कहाँ वनकुरंग? कहाँ तो अरुहनाथ और कहाँ अनंग कामदेव? कंस. केशा एवं चाणूर का दमन करने वाले हरिकृष्ण के सामने शिशुपाल क्या है (अर्थात् उसकी शक्ति ही क्या है)? वह हरि-कृष्ण अतुल्य शक्ति वाले बलभद्र 18) I. ब. 'य। 2. : नि। 3. अ चे। 4. ॐ. 'क नहीं है।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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