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महाका सिंह विरह पञ्जुण्णचरिउ
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हे इंदु वि चंदु वि भत्ति णवि सु पयावइ णावइ भुवणे रवि । जगु दंडइ चंडइ वत-वलिउ कलिकालु विसालु वि जिणि रुलिङ ।
जसु पणइणि सिरिमइ पाण-पिया तहे रुप्प पुत्तु-रुप्पिणि दुहिया। घत्ता- कंचण-मणिगण सारे णिउ हरि वीढे वइ ।
गयणहो मुणि णारए सो त उरवरे विदउ ।।2।।
दुवई पुणु उवयरे वि झत्ति अत्थाणे तहिं णारउ पइट्ठ।
रूवकुमार तउ पेच्छेविणु णिरु णियमणे पहिउ ।। छ।। एण णमंसिउ णय-सिरेण संभासिउ सुमहुरु वर-गिरेण। करमउलिवि भीसमु भणइ ताय दिणु धण्णु अन्जु ज तुम्ह पाय । मलु गलइ णिहालिउ हुंति जाम आसीस मुणीसरु देह ताम। तुह मंडलग्गि जयलच्छि बसउ परचक्कु असेसु विट्ठरे तसउ । सकलत्त सपुत्तहो रिद्धि-विद्धि मण-इंछिय तुह संपडङ रिद्धि। एउ भणेवि खणखें गयउ तेत्यु अंतेउरे ससण राधइहिं जेत्यु।
सूर्य भी जिससे भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। प्रजापति जिसके सामने झुका रहता है, जो जग के चंचल लोगों को प्रचण्ड रूप से दण्डित करता है, जो विशाल कलिकाल से ठगा नहीं जाता। उस राजा भीष्म की श्रीमती नामकी रानी थी, जो उसे प्राणों से भी प्यारी थी, उसका रुप्प नामक पुत्र एवं रुप्पिणी नामकी पुत्री थी। पत्ता- जब वह राजा भीष्म स्वर्ण एवं मणि समूह से जटित सिंहासन पर विराजमान था तभी उसने
आकाशमार्ग से कुण्डिनपुर में प्रवेश करते हुए उस नारद को देखा।। 22।।
राजा भीष्म नारद का स्वागत कर उसे अन्त:पुर ले जाता है जहाँ राजकुमारी रूपिणी के सौन्दर्य से
प्रभावित होकर वह उसे मधुमथन की प्रियतमा बनने का आशीर्वाद देता है द्विपदी- पनः (आकाशमार्ग से) उतर कर वह नारद उस आस्थान राजकुल में प्रविष्ट हआ। रूपकमार उसे देखकर अपने मन में बड़ा प्रसन्न हुआ।। छ।।
राजा भीष्म ने सिर झुका कर उसे नमस्कार किया और हाथ जोड़कर मधुर वाणी में इस प्रकार बोला'आज का दिवस धन्य है जो आपको यहाँ पाया, क्योंकि आपके दर्शन कर हमारे पाप-कर्म गलित हो गये हैं। यह सुन कर मुनीश्वर (नारद) ने आशीर्वाद देते हुए कहा—'तुम्हारे मण्डल (भामण्डल) के आगे जयलक्ष्मी का निवास बना रहे। समस्त शत्रु दूर से ही तुमसे त्रस्त बने रहें। अपनी रानियों एवं पुत्र-पुत्रियों सहित तुम मनोवांछित समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों को प्राप्त करते रहो। यह कहकर वह आधे क्षण में ही वहाँ जा पहुंचा जहाँ अन्तःपुर में राजा की बहिन थी। उस गुण गरिष्ठा का नाम सुरसुन्दरी था। राजा पुत्री को वरिष्ठा रूपिणी के