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महाकर सिंह विरहाउ पन्जुण्णचरिउ
[2.4.10
राउलु सोपणारउ जुण दिट्ठउ हरिपिय कारणे सयलु गविठ्ठ।
सा ण-धीय गरवइ मंडलियहो जा सच्चहे स्वेण व लियहो। पत्ता- वेयठहो गिरिवरहो उत्तरदाहिणसेढि णिहालिय।
तहे सुकेय-सुयहे सुललिय भुयहे सरिसग्गल कवि ण वालिय ।। 20 ।।
दुवई— विज्जाहरहँ विसय परियचेवि भूगोयरहँ देसहो।।
पुणु संचलिउ अत्ति कलियारउ उज्झाउरि पएसहो।। छ।। सा कोसलु पुरि
पुर-णयरहँ धुरि। पयसेवि णारउ
कलह पियारउ। गउ जिण-मंदिरे
णयणा-णंदिरे। रिसहुँ भडारउ
तिहुयण सारउ । भत्तिए वंदेवि
अप्पर जिंदिवि। पुणु गउ राउलि
भेरि रवाउलि। तहिं णिव सुंदर
राउ पुरंदरु। दिठ्ठि ढोइउ
पुणु अवलोइउ। सरसि सणेउरि
तहो अंतेउरि। कुमरि ण दिठिय
कावि विसिदिठ्य।
ही शून्य मिला। कोई राजा भी वहाँ नहीं दिखा। माण्डलिक नरपति की कन्या सत्यभामा के समान निर्दोष रूपवती तरुणी कन्या के समान कोई राजकुमारी उसे वहाँ नहीं दिखायी दी। धत्ता— तब उस (नारद) ने वैताढ्य गिरि की उत्तर दाहिनी श्रेणी की ओर दृष्टिपात किया, किन्तु वहाँ भी
उस सुललित भुजाओं वाली सुकेतु-सुता सत्यभामा के समान अन्य बालिका दिखायी नहीं दी।। 20 ||
विद्याधर-प्रदेश की परिक्रमा कर नारद कुण्डिनपुर में पहुँचता है द्विपदी- वह कलहप्रिय नारद विद्याधरों के देश की परिक्रमा (समाप्त) कर भू-गोचरियों के देश में पहुंचा और चलता-चलता अयोध्यापुरी के प्रदेश में आया।। छ ।। ___ वहाँ पुर एवं नगरों की धुरी के समान कोशलपुरी में प्रवेश कर वह नेत्रों को आनन्ददायक त्रिभुवन के सारभूत ऋषभदेव के जिन-मन्दिर में गया। वहाँ भक्तिपूर्वक वन्दना कर उसने आत्मनिन्दा की, पुन: भेरी नाद से युक्त राजमन्दिर में गया। वहाँ के राजा का नाम पुरन्दर था, जो बड़ा सुन्दर था! नारद ने वहाँ सर्वत्र दृष्टिपात किया। उसके अन्तःपुर को भी देखा किन्तु कोई भी सरस, स्नेहातुर एवं विशिष्ट कुमारी कन्या उसे नहीं दिखाई दी। यह
(4) 6. ब. का
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