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महाका सिंह विर पज्जुण्णचरित
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जले-थले-पहे कलह-पियारएण तहो राउले गंपिणु णारएप |
सकलत्तु सपरियणु सुज्जि दिछ सयलहँ विणवंतहँ णवि वइट्छ । पत्ता- अनलोएवि णीहरिक नहिं होएवि विवाह पाउ।
पहे तहिं काहि वि णियइ ण सारउ।। 19।।
दुवई— विज्जाहर ह विविह पुर णयरिउ जइवि भमंतु अच्छए ।
तहि सारिच्छवण्ण लावण्णई अण्ण ण कोषि पेच्छए ।। छ।। दाहिणि-सेढिहो वि णीसरियउ उत्तरसेठि पई उ तुरियउ । गिरिवेया तियइ मुणि मणहरु अट्ठावयहो सिहरुणं गणहरु । जहिं अकियउ जण णयणा-णंदिर सहसकूडु णामें जिणमंदिरु। विज्जाहर-सुर-णर कय महि महँ अठुत्तरु सउ जिणवर-पडिमहँ। काउवि जत्थ सुकंचण घड़ियउ काउवि रयणविणिम्मिय पडिमउ । वंदिवि पुणिवि तिलोयहो सारउ पुणु णिग्गउ उत्तर-दिसि णारउ।
तहिं पुर-णयर णिरतरु कमियां मण-पवणु व णीसेसु वि भमियउँ। ___ कलत्र सहित परिजनसहित विराजमान राजा ने उस नारद को देखा। सभी ने विनयपूर्वक झुककर उन्हें प्रणाम किया और बैठाया। घत्ता- वहाँ होकर (घूमकर) सबको देख-परख कर नारद ठहरा। परन्तु राजकुल में किसी भी कुमारी का
सार रूप नहीं देखा।। 19||
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सत्यभामा से भी अधिक सुन्दरी कन्या की खोज में नारद की विद्याघर-नगरियों की वेगगामी यात्राएँ
द्विपदी— विद्याधरों के विविध पुर एवं नगरियों को यद्यपि नारद ने भ्रमण कर देखा तथापि वहाँ सत्यभामा के समान रूप लावण्यवाली अन्य किसी कन्या को नहीं देखा ।। छ।। ___ तब वह नारद उस दक्षिण श्रेणी से निकल पड़ा और तुरन्त ही उत्तर श्रेणी में प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने वैतादयगिरि की मुनियों के भी मन का हरण करने वाली स्त्रियों को देखा। फिर वहाँ से वह गणधर समान मनोहर अष्टापद (कैलाश) शिखर पर पहुँचा। वहाँ जनों के नयनों को आनन्ददायक उस अकृत्रिम सहस्रकूट जिनमन्दिर में गया, जहाँ विद्याधरों, सुरों एवं नरों द्वारा महिमा (प्रभावना--पूजा) प्राप्त 108 जिनवर मूर्तियाँ विराजमान हैं। उनमें से कुछ तो निर्मल स्वर्ण घटित थीं और कुछ रत्न-विनिर्मित। तीनों लोकों में सारभूत उन प्रतिमाओं की वन्दना कर वह नारद उत्तर दिशा की ओर चला। वहाँ के समस्त पुरों एवं नगरों में मन एवं पवन की गति से भ्रमण किया। हरि-कृष्ण के योग्य प्रिया की सर्वत्र खोज की किन्तु वहाँ का तो राजकुल
(3) (3) सगकुमारस्य। (40 (1) तस्याः सत्यभामाया।
(4) 1.अ. वि। 2.अ. य। 3. अ. पि|| 4. अ. पयट्टद। 5.अणि ।