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महाकर सिंह विरहाउ मज्जपणचरित
[2.2.9
हरिणिए मुद्धाए लुद्धा
मुच्छ पवण्णा अमरिस कुद्धा । मपहि) - मिइय कलह पिछतो बिज्जाहर-सेढी संपत्तो। घत्ता- जहि पुरवर-पवर-वर-गाम-णयर उहामिर ।
गामार पण वि सरस जंपति सयल णायर-गिर ।। 18 ।।
दुवई... जहि उछ-वण सालिकेयारहि पपसंचारु भज्जिए।
पढमायास गमणु माहि वितहि गमणागमण किज्जए।। छ।। जहिं गाम णिरंतरे जिणहराइँ गणाह इव सावय-मण हराई। मुणि-गण सेविय पं उवदणाइँ पडिभोया इव फणिगणा। जहिं णयरइँ सुर-पुर सण्णिहाइँ कंचणमय रयण-विणम्मियाइँ । मिरि वेयड्ढहो दाहिणि पए सि विज्जाहर जणे णिवसिय असेसि। तहिं सुंग-सिरे सुरहरे दिसा गर गुणे रहाणेउरे-चक्कवाले । जहि विज्जाहरुवइ सणकुमारु रूवेण विणिज्जिउ 'जेणि मारु।
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नारद विद्याधरों की उस श्रेणी में जा पहुँचा । घत्ता- जहाँ श्रेष्ठ पुर, उत्तम ग्राम, पर्वतीय नगर तथा ग्रामारण्य हैं और जहाँ के सभी निवासी नागर-वाणी में सरस बोलते हैं।। 18 ।।
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विद्याधर-श्रेणी का वर्णन द्विपदी- जहाँ इक्षु के वन तथा शालिधान के खेत हैं। जिनसे पद-संचार (पैरों से चलने का मार्ग) टूट जाता। है। पदों से आकाश-गमन होता है। मही में भी गमन होता है। इस तरह विद्याओं के आश्रय से गमनागमन किया जाता है।। छ।। ___जहाँ पास-पास में बसे हुए ग्राम तथा प्रत्येक ग्राम में पास-पास में निर्मित अनेक जिन-भवन हैं, जो श्रावकों के मन का हरण करने वाले संघ के समान प्रतीत होते हैं। वहाँ मुनिजनों द्वारा सेवित उपवन है। वे (मुनि) ऐसे प्रतीत होते हैं मानों पतित भोग (भोग=फण जिनके गिर गये हैं अर्थात् क्षांत) फणिगण (सर्प) ही हों।
जहाँ के नगर सुरपुर (स्वर्ग-अमरावती) के समान हैं, जो कंचनमय रत्नों से विनिर्मित हैं, ऐसे उस वैताढ्य (विजयार्घ पर्वत) के दक्षिण प्रदेश (श्रेणी) में सम्पूर्ण विद्याधर-जन निवास करते हैं।
वहाँ तुंग शिखर पर विशाल सुरघर (विमान) समान रथनूपुर-चक्रवाल नगर में वह मुनि नारद गया, जहाँ विद्याधरों का राजा सनत्कुमार निवास करता था, जिसने अपने रूप से खोटे मार (काम) को भी जीत लिया था। जल, स्थल एवं आकाश में घूमता हुआ कलहप्रिय, कलहरत वह नारद राजकुल में जा पहुंचा।
(2) 5. अ. रोटिया (3) 1. अवे। 2. अ. 'णि' नहीं है।
(2) (4) मृगाणां । (5) नारदः । (3) (3) विद्या। (2) बेताइये।