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________________ 2.2.8] महाकर सिंह विरहाउ पज्जुष्णचरिक 119 जए राय-सामंत कस्सेव धूवा स-भूगोयरी-खेयरी सार-भूवा । पयच्छामि कण्हेण अण्णो वियप्पो पभंजामि बुद्धीए हं ताहि" दप्पो । घत्ता- अहिमाणे भरिउ णियमणु संठवइ ण केवहिं। तहो गयहो चलिउ सो णारउ तक्खणे खेवइ ।। 17।। 15 दुवई हे गर्छतु संतु सो पेछइ हरि सुह मुक्कणी सणं । वणु-गिरि-तुंग 'दुग्गय-गय-गंडय दुस्सह-सरय भीसणं ।। छ।। कत्थवि किडि-पुल्लिहिं संगामो पेछिवि मणे मण्णइँ अहिरामो। कत्थई फड़-फुकार सदप्पो आढत्तो णवलेणं सप्पो। कत्थवि लोल-ललाविय-जीहो । करि-कुंभे संघडिउ सीहो। चाहेणं विरइय ठाणेणं तिक्खेणेक्के णं वाणेणं। किरि-डीहिमि-सीहस्स वि जीउ वंधेपि णु पंचत्तहिं णीउ। कत्थवि णवि मण्णहिं भयभंगो भिडिउ सरोसु कुरंगि”-कुरंगो। में यदि किसी राजा, सामन्त या विद्याधर की सारभूत भूमिगोचरी अथवा खेचरी पुत्री हो तो उसे ही क्यों न कृष्ण को दिला दूं? इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं करूंगा। इसी प्रकार सत्यभामा के ऊपर कृष्णा की प्रेमबुद्धि को भंग कर इसके दर्प को भंग करता हूँ। धत्ता- अभिमान से भरा हुआ वह नारद किसी भी प्रकार अपने मन में शान्त नहीं हुआ। वह तत्क्षण आकाश मार्ग से चल दिया ।। 17।। आकाश मार्ग से जाते हुए नारद, पृथ्वी-मण्डल के प्राणियों की क्रीड़ाएँ देखते हुए विद्याधर-श्रेणी में पहुँचकर वहाँ के निवासियों की नागरी-वाणी सुनते हैं - द्विपदी- आकाश में जाते हुए उस नारद ने रहस्यपूर्वक छोड़े हुए श्रीकृष्ण के उस आस्थान तथा दुर्गम वन, उन्नत पहाड़ और दुस्सह एवं भयानक वन गज, गेंडा तथा शरभ (अष्टापद) देखे। उस वन में कहीं किटि (शूकर) और पुल्लि (भीलों) का संग्राम देख कर उस मुनि ने अपने मन में आनन्द माना, कहीं फण सहित फुकार करने वाले दीले सर्प को नवेले से जूझते देखा। कहीं लोल (चंचल) लपलपाती जिह्वा वाले सिंह को गज के कुम्भ (मस्तक) पर घात करते देखा। कहीं उस वन में स्थान बना कर बैठे हुए व्याध के द्वारा एक तीक्ष्ण बाण से सिंह का वध कर पंचत्व (मृत्यु) को प्राप्त कराते देखा। कहीं पर भय नहीं मानते हुए एक सरोष कुरंग (मृग) कुरंगी के पीछे दौड़ रहा था और ईर्ष्या के कारण क्रुद्ध लुब्धा मुग्धा हरिणी को मूर्छित होते हुए देखा, कहीं मृगों से मृगों की कलह को देखा और इस प्रकार उस वन को देखता हुआ वह (1) (2) जाही।।31 अकामे पद पूरणं । (2) (1) सूकर. । (21 हस्तिन. सासिंहः । (3) मृगाणा । (2) | सु। ... भी। 3. अ. दु। 4. अ वि.।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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