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महाकड मिह विरहज एज्जुण्णचरित
[2.1.1
बीउ संधी
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दु:..- ए जि पणिजात कि संभागिट ण वि सिय सेविए।
वइसहु ण वि भणिउँ सो णारउ हरि महएविए।। छ।। दुवई— ठिय अवहेरि करि जा राणिय ता कोवेण कपिउ।
__इहि 'उवयास किंपि दरिसावमि मुणि णियमणे पयंपिउ।। छ ।। तवो णिग्गऊ चित्ते खोह वहतो विलक्खी हुउ तं विसायं सहतो। वयं णच्चिमहे जो अवज्जत तूरो ण णच्चामि किं वज्जिा से. अडूरो। इमं संभ रतो गओ सो तुरंतो सिहीजाल पिंगा-जडालो फुरंतो। णहे गच्छमाणो दणते पइटको पुणो चिंता "स्यल सिंगे वइलो। अलं कत्थ जामो अहं कि गामो किउँ मझु तीएण पायं पणामो। हरावमि किं कस्स पासम्मि दुठः । सियारूव सोहाग गब्वेण पुट्ठा । पर एरिसं मज्झु काउ ण जुत्तं इमं वासुदेवस्स इट्ठ कलत्तं ।। ण कीरमि तस्से व चित्ते अतोसो ण बच्चेउ मझं अवॉ वि रोसो।
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दूसरी सन्धि
रूपगर्विता सत्यभामा के प्रति नारद का क्रोध विपदी– सखियों से सेवित हरि की महादेवी सत्यभामा ने उस नारद को प्रणाम भी नहीं किया. न सम्भाषण ही किया और "बैठिए" इस प्रकार भी नहीं कहा ।। छ।।
द्विपदी- वह सत्यभामा जब नारद की अवहेलना करके भी बैठी ही रही तब कोप से कम्पित उस मुनि ने अपने मन में कहा "अब इसे कुछ उपचार दिखा ही हूँ" || छ।।
तब मुनि नारद अपने चित्त में खेद धारण करता हुआ, विलखता हुआ तथा उस विषाद को सहन करता हुआ, वहाँ से निकल गया। जब हम बिना तूर के बचे ही नाचने वाले हैं, तब क्या तूर के बजने पर मैं नहीं नाचूँगा? ऐसा मन में स्मरण करता हुआ वह तुरन्त गया। अग्नि की ज्वाला समान पीली जटाओं को फैलाता हुआ, वह आकाश में जाते-जाते वन के मध्य में जा घुसा। पुनः पर्वत के शृंग (शिखर) पर बैठकर वह विचारने लगा—"बस, अब मैं कहाँ जाऊँ, अब मैं क्या करूं? कैसे मैं इस स्त्री से अपने चरणों में प्रणाम कराऊँ? क्या मैं किसी के पास में इस दष्टा का अपहरण करा दें? क्योंकि सा
सीता के समान यह भी रूप-सौभाग्य के ग हो रही है। परन्तु ऐसा करनः मेरे लिए उचित नहीं है। (क्योंकि यह वासुदेव की इष्ट कलत्र है। उस बासुदेव के चित्त में मैं असन्तोष उत्पन्न नहीं करूंगा तथा मैं अपने रोष को भी निष्फल (अवन्ध्य) नहीं करूँगा। संसार
(1) (नि.फल:
(1) अ । 2.अ. ! 3. ब खे। 4.अ. वसंतो।
६५ "16अ सल।