SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14] महाक सिंह विरडा पन्जुण्णचरिउ कोई-कोई चरण, पद, शब्द अथवा केवल वर्ग ही दृश्यमान रह गये हों और सिंह कवि ने गुरु के आदेश से कहीं तो उनकी धूमिल छाया या आनुमानित छाया के आधार पर अदशिष्टांशों का पल्लवन और कहीं-कहीं त्रुटित अंशों की प्रसंगवश मौलिक रचना कर उस कृति को सम्पूर्ण किया था। यदि ऐसा न होता तो सिंह कवि यह न लिखते कि- जं कि पि हीण-अहियं विउसा सोहंतु तं पि हय कचो। EXIBŪk.sk jb;a [leag 10a fi ega x.HAA —15/29/34-35 अर्थात् पस्नुपणचरिउ काव्य में मैंने यदि धृष्टतापूर्वक हीन आथवा अधिक (अंशों की रचना कर दी हो तो मेरी उन समस्त श्रुटियों का विद्वज्जन (आवश्यक) संशोधन कर लें तथा मेरे गुरुजन मेरी समस्त त्रुटियों को क्षमा करें। 9वीं सन्धि से 15वीं सन्धि तक की अन्त्य पुष्पिकाओं में सिंह कवि का ही उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिंह कवि ने उक्त अन्तिम 7 सन्धियों का पूर्ण रूप में उद्धार अथवा प्रणयन किया था। इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि प०च० का मूलकत्तों कवि सिद्ध था और उसका उद्धारक था महाकवि सिंह। 5. मूल ग्रन्थकार-परिचय ____ जैसा कि पिछले प्रकरण में लिखा जा चुका है, पच० का मूल अन्धकार महाकवि सिद्ध है। उसका विस्तृत परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त एवं क्रमबद्ध सामग्री का अभाव है। प०च० की आद्य-प्रशस्ति से यही विदित होता है कि उसकी माता का नाम पम्पाइय तथा पिता का नाम देवण' था। उक्त प्रशस्ति से ही विदित होता है कि महाकवि सिद्ध सरस्वती का परम भक्त था। बहुत सम्भव है कि उसे वह सरस्वती सिद्ध हो, क्योंकि उसने लिखा है कि-"एक दिन जब वह चोरों के भय से आतंकित हो कर रात्रि-जागरण कर रहा था, तभी उसे अन्तिम प्रहर में निद्रा आ गई। उसी समय स्वप्न में उसने श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, हाथों में कमल पुष्प तथा अक्षसूत्र ग्रहण किए हुए एक मनोहारी महिला को देखा। उसने कहा—हे सिद्ध (कवि), अपने मन में क्या-क्या विचार किया करते हो? तब सिद्ध कवि ने अपने मन में कम्पित होते हुए कहा—'काध्य-बुद्धि को प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ, किन्तु लज्जित बना रहता हूँ क्योंकि मैं तर्कशास्त्र, छन्दशास्त्र एवं लक्षणशास्त्र के ज्ञान से रहित हूँ। सो मैं समास एवं कारक जानता हूँ और न सन्धि-सन्न के गन्धों के सारभत-अर्थों को जानता हैं। किसी भी काव्य को देखा तक नहीं। मुझे कभी किसी ने निघण्टु तक नहीं पढ़ाया। इसी कारण मैं चिन्तित बना रहता हूँ। किन्तु (साहित्य-पास्त्र में) बौना होने पर भी साहित्य-शास्त्र रूपी ताल-वृक्ष को पा लेने की अभिलाषा है। (साहित्य-शास्त्र में) अन्धा होने पर भी नित्य नदीन काव्य-रूपी वस्तु देखने की इच्छा किया करता हूँ। बधिर होने पर भी साहित्य-शास्त्र रूपी संगीत के सुनने की आकांक्षा किया करता हूँ। मेरी यह प्रार्थना सुन कर वह श्रुतधारिणी सरस्वती बोली—'हे सिद्ध, अपने मन से आलस्य छोड़ो। मेरे आदेशों को दृढ़तापूर्वक पालो, मैं (शीघ्र ही) तुझे मुनिवर के वेश में आ कर कोई काव्य-विशेष करने को कहूँगी, तब तुम उसकी रचना करना। __ "तत्पश्चात् महान् तपस्वी मलधारी देव मुनि-पुंगव माधवचन्द्र के शिष्य अमयचन्द्र भट्टारक विहार करते-करते बम्हडवाइपट्टन पधारे और वहीं पर उन्होंने मुझे (सिद्ध कवि को) पञ्जुण्णचरिउ' के प्रणयन का आदेश दिया। इससे यह सिद्ध है कि कवि सरस्वती का परमोपासक था। इसके अतिरिक्त प०च० में अष्टद्रव्यपूजा के प्रसंग में कवि ने जल, चन्दन के पश्चात् पुष्प एवं अक्षत का क्रम रखा है। इससे यह निश्चित है कि कवि 1.प.च:, 16:12. वही0, 1:339-10 3. वही, 11- 84. वही0 3/5145. नहीं0 15.71-7
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy