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प्रस्तावना
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कृष्ण आदि के माध्यम से उसकी झलक पन्जुषणचरिउ में प्रदर्शित की है। युद्ध में प्रयुक्त कुछ शस्त्रोपकरणों के
उल्लेखों में भी उसके साथ समानता है। उक्त महमूद गजनवी का समय वि०सं० 1 142 के आसपास है। (3) कवि ने अर्णोराज, बल्लाल एवं भुल्लण जैसे शासकों के नामोल्लेख किए हैं। बड़नगर की वि०सं० 1207
की एक प्रशस्ति के अनुसार कुमारपाल ने अपने राजमहल के द्वार पर उक्त मृत बल्लाल का कटा मस्तक • लटका दिया था। कुमारपाल का समय वि०सं० 1143 से 1173 के मध्य है।
अत: उक्त तथ्यों के आधार पर पज्जुण्णचरिज का रचनाकाल 12वीं सदी का अन्तिम चरण या 13वीं सदी (विक्रमी) का प्रारम्भिक चरण सिद्ध होता है। 4. मूल प्रणेता कौन?
पज्जुण्णचरिउ की आद्य-प्रशस्ति से स्पष्ट विदित होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का मूलकर्ता महाकवि सिद्ध है किन्तु प०० की अन्त्य-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि किन्हीं प्राकृतिक उपद्रवों के कारण वह रचना विनष्ट अर्थात् गलित हो चुकी थी। अतः अपने गुरु मलधारी देव अमृतचन्द्र के आदेश से महाकवि सिंह ने उसका छायाश्रित उद्धार किया था।
उद्धारक महाकविसिंह ने अन्त्य-प्रशस्ति में स्वयं लिखा है—"एक दिन गुरु (मलधारीदेव अमृतचन्द्र) ने कहा—"हे छप्पय-कविराज (अर्थात् षट्पदियों के प्रणयन में दक्ष हे कविराज), हे बाल-सरस्वती, हे गुणसागर, हे दक्ष, हे वत्स, कवि सिंह, साहित्यिक विनोद के बिना ही अपने दिन क्यों बिता रहे हो? अब तुम मेरे आदेश से चतुर्विध-पुरुषार्थ-रूपी रस से भरे हुए, कवि सिद्ध द्वारा विरचित, किन्तु दुर्दैव से विनष्ट हुए उसके (सिद्ध कवि के) इस "पज्जुण्णचरिज" का निर्वाह करो। क्योंकि तुम गुण्ज्ञ एवं सन्त हो। तुम ही उस विनष्ट ग्रन्थ का छायाश्रित निर्माण कर सकते हो।" उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि पज्जुण्णचरिउ की कवि सिद्ध-कृत रचना पूर्णतया नष्ट तो नहीं, किन्तु कुछ विगलित अवश्य हो चुकी थी तथा उसी रूप में भट्टारक अमृतचन्द्र को उपलपब्ध हुई थी। अत: उसके उद्धार के लिए ही उक्त भट्टारक द्वारा कवि सिंह को आदेश दिया गया था। वर्तमान में उपलब्ध पज्नुण्ण चरिउ सिंह कवि-कृत पूर्वोक्त छायाश्रित रूप है। ___ कवि सिंह ने पञ्जुण्णचरिउ के उद्धार-प्रसंगों में यद्यपि 'करहि' (15:29/19), विरयहि (15, 29, 27), णिम्मविय (15, 29, 33), रइयं (15, 29, 35) जैसे शब्दों के प्रयोग किए हैं, किन्तु कवि के ऐसे शब्द-प्रयोग भी उद्धार के प्रासंगिक अर्थों में है, लेना चाहिए, क्योंकि सिंह कवि के गुरु ने स्वयं ही उसे विनष्ट पन्चः के निर्वाह (णिव्वाहहि. 15, 29, 17) का आदेश दिया था तभी सिंह ने भी उसे उद्धरियं (15, 29.29) कहकर उसके उद्धार की स्पष्ट सूचना दी है।
अब पुन: प्रश्न यह उठता है कि सिद्ध कृत प०च० क्या समूल नष्ट हो गया था या आंशिक रूप में? उपलब्बर प्रतियों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यद्यपि सनग्र ग्रन्थ का प्रगमन तो सिद्ध कवि ने ही किया था, किन्तु किन्हीं अज्ञात प्राकृतिक उपद्रों के कारण वह बिनाष्ट अथवा विगलित हो चुका था। सन्धियों के अन्त में उपलब्ध पुष्पिकाओं से विदित होता है कि प्रथम ४ धवौं तो विर्गालत होने पर भी पहनीय रही होंगी, क्योंकि उनमें कवि सिद्ध का नाम उपलब्ध होता है। अत: उन्हें सिद्धकृत बताया गया है। किन्तु उसके बाद के अंश या तो सईया नष्ट हो चुके थे अथवा गल कर अपठन हो चुके थे। बहुत सम्भव है कि उन अंशों में क्वचित् कदाचित्
1.
चुगर15:29:371 2.३८. इस शोध-प्रवन्ध में
ना जी सन्धि । सो हनिय तक की अन्त्य पुष्पिकाएं।