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महामद सिंह विरउ मज्जगणाचरिउ
[1.16.1
(16) ता हरिणा जंपिउ अइ भणोज्जु हुउ अम्हह वासरु सहलु अज्जु । तहिं अवसरे उच्चाइय करेण आसीस दिण्ण पुणु मुणिवरेणः । सकलत्तु-सपुत्तु-सवंधु ताम । तुहूं णं दिवछि ससि-सूर जाम । 'इत्थंतरे मुणि संचलिउ तेत्यु जा सच्चहाव हरि घरिणि जेत्थु । णियराउलि सीहासणे णिविट्ठ सिंगार लिंति णारएण दिछ। सज्जंति अलय विरयति तिलउ केर्कर-हार-मणि-णियर णिलउ । दपणे करयले मुहू णियइँ जाम रिसि पारउ तहि अवयरिउ ताम।
सो पेछिवि किय अवहेरि ताए। सोहग्ग-रुव-मय-गबिराए। यत्ता- सिंगारहो अवसरे अज्जु सुवासरे कहिं आएउ कोवीण जुउ ।
बेयालु वसंतिहिं मझु करतिहि एउ' आहाणु पसिद्ध हुउ ।। 16 ।। इस पज्जुषणकहाए पयडिय धम्मस्थ-काम-मोक्खाए कइ सिद्ध विरझ्याए पढमो संधी परिसमत्ता ।। संधीः ।। 1 1। छ।।
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(16) नारद के सहसा आगमन पर रूपगर्विता सत्यभामा लज्जित हो जाती है नारद का कथन सुन कर हरि ने अति मनोज्ञ शब्दों में कहा-"आज का हमारा दिन सफल हुआ।" यह सुनकर मुनिवर नारद ने उसी समय हाथ उठा कर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा-"कलत्र, पुत्र, बन्धु सहित तुम जब तक चन्द्र एवं सूर्य हैं तब तक वृद्धि को प्राप्त होते रहो।" इसी बीच मुनिराज वहाँ से उस ओर चल पड़े जहाँ हरि की गृहिणी सत्यभाव-सत्यभामा निवास करती थी। सत्यभामा अपने राजभवन के सिंहासन पर बैठकर शृंगार कर रही थी। केशों को सजा कर तिलक लगा रही थी, केयूर तथा मणिसमूह का निलय समान हार पहिनकर जब वह हाथ में दर्पण लेकर अपना मुख देख रही थी तभी ऋषि नारद वहाँ उतरे। सौभाग्य रूप मद से गर्ववाली वह सत्यभामा उन नारद को देख लज्जित हो गई (और विचार करने लगी कि)-.. घत्ता- श्रृंगार के अवसर पर आज शुभ दिन में यह कौपीनधारी, कहाँ से आ गया? "मेरे आनन्द करने में
बेताल बस गया।" यह आहान (अहाना कथानक) चरितार्थ हो गया है।" ।। 16।। इस प्रकार धर्म-अर्थ-काम एवं मोक्ष पुरुषार्थ को प्रकट करने वाली कवि सिद्ध द्वारा विरचित प्रद्युम्न-कथा में प्रथम सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 1 ।। छ।।
(16) 1. आ. ₹12.
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(16) (1) तत्स सत्यभामाया।