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________________ 1.15.10] महाकर मित विरराज पनुपपारित [15 छत्ता- सीहासणु छंडिवि पय-अवलंडिवि ता दोहिमि सुह-भायणहिं। खुल्लय-वय धारउ णिवभइँ सारउ पणमिउ बल गरायणेहिं ।। 14।। (15) त'दो तहिं तिणि वि सुठु पहिट्ट झडत्ति हरी-वलवीढे वइट्ठ। हरीबलहद्दह मज्झे मुणिंदु [[2) कण्णत्तुल भरे संठिउ चंदु । पसंसिउ गारउ तक्खणे तेहि विहप्फइ णावइ सग्गे सुरेहिं। पयंपिउ अम्हहँ जम्मु कयस्थु समागय जपहु तुम्हहँ इत्थु। कहतहो अज्जु पहिउ' ताय मुणीवि सु सच्च पयासइ वाय। गिरी-दरि-खेड-मइंब भमंतु अकित्तिम-कित्तिम-तित्थ णमंतु। जिणेंद थुणतु स-कम्म धुणंतु जयम्मि कलीकल-कील कुणंतु। णहाउ णिहालिवि सतत्त-सुवण्ण पुरी वर-वावि-तलायर वष्ण। पत्ता- सुर-णर-मणहारउ अवर तुहारउ "इहु अत्थाणु विसिउ।। हरिसहु बलरुदें 'अरि-वल म जहि तुहु तं मइ दिलउँ ।। 15।। 10 घत्ता- तब दोनों सुख भाजन भाई...बलभद्र और नारायण ने सिंहासन छोड़कर क्षुल्लक व्रतधारी एवं नियम में सारश्रेष्ठ नारद के चरणों में वन्दना कर प्रणाम किया।। 14 ।। (15) कृष्ण, बलदेव एवं नारद का वार्तालाप वे तीनों ही मिल कर बड़े प्रसन्न हुए। हरि (कृष्ण) एवं बल (बलभद्र) ने उन्हें (नारद को) शीघ्र ही सिंहासन पर बैठाया। वे मुनीन्द्र इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानों कर्णतुला (सुवर्णतुला) के मध्य चन्द्रमा ही स्थित हो । इन दोनों ने तत्क्षण नारद की उसी प्रकार प्रशंसा की जिस प्रकार स्वर्ग में देवों द्वारा वृहस्पति की संस्तुति की जाती है। उन्होंने कहा—"हे तात आज हमारा जन्म कृतार्थ हुआ, आप कैसे प्रसन्न हो गये, जो यहाँ पधारे। अपने आगमन का कारण बतलाइये।" यह सुन कर मुनिराज नारद ने यथार्थ रूप में कहा-"मैं पर्वतों, दरी गुफाओं), खेडों, मटम्ब (पर्वत के तल स्थान) में भ्रमण कर अकृत्रिम, कृत्रिम तीर्थों को नमन करता रहा तथा जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए मैं अपने कर्मों को धुनता रहा। इस प्रकार जगत में कलिकाल की मधुर कीड़ा करते हुए जब मैंने आकाश से तप्त स्वर्ण के समान सुन्दर नगरी (द्वारावती), श्रेष्ठ वापिकाएँ एवं सुन्दर तालाब देखे औरपत्ता--.. तुम्हारा यह देवों एवं मनुष्यों के मन को हरने वाला विशिष्ट आस्थान देखा साथ ही में अरि की सेना का मर्दन करने वाले बलभद्र सहित तुम (हरि) को मैंने देखा (इसलिए मैं यहाँ चला आया हूँ)।। 15 ।। (15) (Oसिंहाभणे। (2) इति वितके । 3) मधे द्र। 1151. आ. "उ। 2. अ.र। 3.ज प। 4. अ. पदउ। 5. छु। 6. ।1-8. अ में नहीं है। 9. ॐ " "।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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