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________________ 14] महाकन सिंह विरहउ पज्जण्णचरिड [1.13.11 पत्ता- तहि रज्जु करतहो महिपालंतहो जण-मण णयपणाणंदणहो। जलहद-सणेहलो स्य आवराहहो को उबमिय₹ जणणहो ।। 13 ।। (14) जायव-कुल-णहयल णेसरेण दारामइपुरि-परेमसरेण । मंडलिय मिलिय सामंत सारु केऊर-हार-मणि-मउड-फारु। कामिणि-कर-चालिर-चारु-चमरु मयणाहि गधि वियरत भमरु । कप्पूर पवर तंवोल वहलु फंफावय सरवर संत मुहलु। पडिपट्ट णेत्त गठ्ठिय विचित्तु ससि-सूर कंत कर-णियर दित्तु। संगीय-विविह-सुविणोय किण्णु चक्केसँ जहि अत्थाणु दिण्णु। कंचण-मई-सिंहासण सुणेह णं मेरु-सिहरि ण कसण मेह । वतहद्द-जणद्दण भुव"णि बलिय जह इंद-फणिंद वि वेवि मिलिय। तहि अवसरे कलह-पियारएण गयणंगणे जते णारएण। अत्थाणु णिहालिउ हरि हिं जाव' सहसत्तिय ढुक्कउ तहि जि ताम। 10 पत्ता- वहाँ द्वारावती नगरी में राज्य करते हुए पृथ्वी का पालन करनेवाले प्रजाजनों के मन, नेत्रों को आनन्दित करनेवाले, बलभद्र के स्नेह को प्राप्त करनेवाले तथा अपराधियों का हनन करनेवाले उन जनार्दन की (कृष्ण की) उपमा किससे दूं? || 13 ।। नारद का कृष्ण की सभा में आगमन - जो कृष्ण यादव कुल रूप आकामा का सूर्य, तथा द्वाराक्ती पुरी का परमेश्वर था। जो श्रेष्ठ सामन्तों एवं प्रदत्त माण्डलिकों द्वारा प्रदत्त केयूर, हार तथा मणि जटित दैदीप्यमान मुकुट धारण किये था। जिसके ऊपर कामिनियों के करों से सुन्दर चमर दुराए जा रहे थे, मृगनाभि (कस्तूरी) की गन्ध के कारण जिस पर भ्रमर विचरण कर रहे थे। कर्पूर प्रधान ताम्बूल का सेवन करने से जो फंफा रूप स्वर से (पीक-.) बरसाते हुए मुखवाला था (अर्थात् पीक थूकता रहता था)। प्रतिपट्ट एवं नेत्त रिशमी) सूत से चित्र-विचित्र रूप से गठित (अर्थात् बिने हुए) सुन्दर वस्त्र धारण किये था, जो चन्द्र एवं सूर्य की मनोहर किरण-समूह के समान दीप्तिवाला था। ऐसा वह चक्रेश कृष्ण संगीत और विविध सुविनोद (खेलों) से कीर्ण (व्याप्त) आस्थान में कंचण मणि खचित सिंहासन पर ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसे मेरु शिखर पर नव कृष्ण मेघ ही आ गया हो। भुवन में अतिशय बली जनार्दन और बलभद्र दोनों (उस समय) ऐसे लगते थे मानों इन्द्र एवं फणीन्द्र दोनों ही वहाँ आकर मिल गये हों। उसी अवसर पर कलहक्रिया में रत, गगनांगण में जाते हुए मारद ने जब हरि के उस आस्थान को देखा, तब उन्होंने सहसा ही आकर उस आस्थान में प्रवेश किया। | 4. X" (14) 1. अ. 'उ'। 2. ब. ण । 3. अ. 5.अ. हलिहे। 6. X में। (13) (4) बलभद्र सनात्स्य। (5) णाराबास्स। 114) (क) रन । (2) कस्तुरी। 139 प्रवेतया मेनौ ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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