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________________ 1.10.81 महाकद सिंह विरह पज्जण्णचरिउ पायारत्तुंग चउ-गोउरेहि जास लहिय गयणमि' सुरेहिं । सा णयरि-णियविणि चित्तेधरइ तिणउ अहिरत्ति दिणुसेव करइ । 10 सो भुल्लउ पर-परतियहि कम गहब घरिणिहिं दहवयणु जेम। घत्ता— पसरि कल्लोलहिं भुयहिं वितालहिं णं णिय' विष्फालइ । खणि संकि विफिट्टइ पुणु वि पयट्टइ मूढउ अप्पउ खोलइ" ।। 10 ।। (11) पणिहि रयणठु सलोणु जइवि अहलित्तु मज्झु तह' तणउ तहबि । गयदंतु-संख-मोत्तिय-पवाल ढोयत्तु ण थक्कइ सफल काल । घणु दिंतु वि णवि इंछियउ जाम्ब' . पुणु उअहि वि लक्खी हुवउ ताम्ब। चल लहरि समुट्ठिय वाहु दंडु पुक्कार करइ अइ णिरु पयंडु। बहु रयणइ सारइ जाइँ-जाइँ वारवइ लेवि थिय ताई-ताई। घडहड-सद्द है 'एरिस च्चवंतु गय 'ण" लग्गु सो सिंधु-कंतु । एवं चतुर्दिक निर्मित गोपुरों वाली वह नगरी ऐसी प्रतीत होती थी, मानों आकाश-मार्ग से जाते हुए देवों द्वारा प्रशंसित हो रही हो। वह नगरी रूपी नितम्बिनी अपने चित्त में समुद्र को धारण करती है, इसी कारण से समुद्र भी उसकी रात-दिन सेवा किया करता है। वह समुद्र पर-स्त्रियों द्वारा कैसे भुला दिया गया था? ठीक इसी प्रकार, जिस प्रकार दशवदन रावण, राघव-गृहणी—सीता के कारण अपनी गृहणियों को भूल गया था। घत्ता- वह समुद्र अपनी फैलती हुई कल्लोल रूपी विशाल-भुजाओं से मानों उस द्वारावती रूपी अपनी प्रेयसी के नितम्ब (कटिभाग) का स्पर्श करता है, फिर क्षण भर में शंका कर हट जाता है। पुनरपि प्रवर्तता है और इस प्रकार वह मूढ़ अपनी हँसी कराता है।। 1011 समुद्र का वर्णन वह समुद्र यद्यपि खारा है तो भी रत्नों से व्याप्त है। वह द्वारावती नगरी के समस्त पापों (गन्दगी) को अपने उदर में लेता रहता है। इसीसे खारेपन को प्राप्त हो गया है। वह नगरी सभी कालों में गज-दन्त, शंख, मौक्तिक एवं प्रवालों को ढोते हुए भी नहीं थकती। इस प्रकार धन देते हुए भी जब नगरी ने समुद्र की इच्छा नहीं की तब पुनः समुद्र भी बिलखी (दुःखी) हो गया। चंचल लहरोंरूपी उठायी हुई बाहुओं के दम्भ से (छल से) रात दिन पगला हुआ वह समुद्र पुकार करता रहता है, जो भी मेरे सारभूत रत्ल थे उन उनको लेकर यह द्वारावती (रूपी प्रेयसी) बैठ गयी है। घडहड-घडहड शब्दों से प्रतीति सत्य वचन वाला वह समुद्र रूपी कान्त, गगन का स्पर्श करता रहता है (अर्थात् आकाश तक उछल-उछल कर रोता रहता है)। तब जल के जीव चक्र (आकाश) । [10)7.3 गाणे। 8. अ. 4. 'व। 9. 3 "य। 10. अ. II. ब खा। (11) | अ 'भा 2.4 'मु। 3 द "भु। 4.अ भहें। 5. 1. अ 'सु.। 7.अ.वि. । (11) (1) तस्याः द्वारवत्याः । (2) नदी।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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