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________________ 10]] महाकद सिंह विरइज पन्जुण्णचरिज [1.96 पिय विरहु विजहि कडुपउ' कसा कडिलु विज्नवइहिं कुंतल-कलाउ । नहि तेस-णयरि MP-का-सणिक बारपट गाग तिहुवणि पसिद्ध । अइमणहर भणवि कियायरेहिं पर अंचिय जारय णायरेहिं । पत्ता- पुर णयरहें सारिप हरिहिं पियारिय वारह-जोयण बित्थरिया। 10 कंचण-आहरणहिं भूसिय-रयणहिं णं अमराउरि अवयरिया ।। 9।। (10) जहिं थामि-थामि गंदणवणाई साहार-पउर सुरतरु घणा.।। किं-सउह्यलई" अइसुंदरार णं-णं गिब्वाणह 27 मंदिरा।।। जहिं हाव-भाव-रस कोच्छगउ पणयंगणाणं अच्छराउ। जहिं थामि -थामि-हिलि-हिलिहि तुरय विरयंति) मत्त गजंत दुरय । जहिं आवणि-आवणि रमइ घणउं पडिपट्टणेत्त बहु रथण-कणउ । कप्पूर 'पवर मयणाहि वहल' चउहय कप्पंधेिव सुसहल। पासाय-सिहर मरु-हय-धएहिं णं छिवइ सग्गु उब्भिय भुएहिं । वियोग नहीं था। यदि कमी थी तो केवल कषायों में ही अन्यत्र कहीं भी कमी नहीं थी। जहाँ कुन्तल-कलापों में (केशों में ) तो कुटिलता थी किन्तु अन्यत्र कोई व्यक्ति में कुटिलता नहीं थी। ऐसे उस सौराष्ट्र देश में धनकण (धान्य) से समृद्ध एवं त्रिभुवन में प्रसिद्ध द्वारावती (द्वारिका) नामकी एक नगरी थी जो आदरपूर्वक अत्यन्त मनोहर कही गयी है तथा जो श्रेष्ठ नागरिकों से युक्त है। घत्ता- वह द्वारावती समस्त पुर-नगरों में श्रेष्ठ एवं सारभूत तथा हरि (कृष्ण) की प्यारी थी। विस्तार में वह बारह योजन तथा सुवर्णाभरणों एवं रत्नों से भूषित थी। ऐसा प्रतीत होता था मानों स्वर्गपुरी हो नीचे उतर आयी हो।।। १।। (10) द्वारावती नगरी का वर्णन जिस द्वारादती नगरी में थाम-थाम (स्थान-स्थान) पर नन्दनवन हैं, जिनमें आहार से प्रचुर कल्पवृक्ष के समान सघन वृक्ष है। जहाँ अतिसुन्दर सौध-तल (गृह) निर्मित थे। वे ऐसे प्रतीत होते ये मानों देवों के मन्दिर (विमान) ही हैं। जहाँ की पण्यांगनाएँ हाव-भाव रस में अत्यन्त कुशल थीं। वे ऐसी प्रतीत होती थीं मानों देवांगनाएँ अथवा अप्सराएँ ही हों। जहाँ स्थान-स्थान पर घोडे हिनहिनाते रहते हैं। जहाँ मत्त दिरद गज स्थान-स्थान पर गर्जना किया करते हैं। जहाँ आपण-आपण (हाट-बजार) में प्रतिपट नामक वस्त्र, रेशमी वस्त्र, विविध प्रकार के रत्न, सोना आदि एवं कर्पूर मृगनाभि (कस्तूरी) बहुल मात्रा में (भरे पड़े रहते हैं। प्रत्येक चौराहे पर कल्पवृक्षों के समान फल वाले वृक्ष लगे हैं। जहाँ प्रासादों के शिखरों की वायु से आहत ध्वजाएँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानों वह द्वारावती उन ध्वजाओं रूपी अपने हाथों से स्वर्ग का स्पर्श ही कर रही हों। उत्तुंग प्राकारों (५) 5. अ *व। 6 अ “द । 7.8 " | ४. अ. यं' : 11011. अ ' नहीं है । 2. अ. 'मि । 3 अ 'मि। 4. अ. "3। 5. 6.ब म। । (10) [ ना 2) देण्याना। (3) वेस्गरमूह । (4) कुवति। {5) चतुष्प-नतुष्णधे हस्थाने । (6) फलतेनः ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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