________________
1.9.5
महाकड सित विरउ पज्जुष्णारउ
जहिं णंदण-त्रण-फल भर णमंति कोइल-काल वह-वह-वह भणंति।
पवहति जच्छ णिज्यर-अलाइँ मवजूहहिं जहिं सेविय-थलाइ। पत्ता- जहिं सुपिहुल रमणिउँ मंथर गमणिउँ कय भुअंग सहसंगिणिउँ ।
___ सच्छंबर धारिउ जण-मण-हारिउ पण्णत्तिय 4 तरंगिणिउँ ।। 8 ।।
10
मयसंग) करिणि ज हिं पे'यकंदु) खरदंडु सरोरुह ससि-सर बंदु'। जहिं कटव-बंधु विगहु सरीर धम्माणुरतु जणु पावभीर । थदृत्तणु मलणु वि मणहराहँ वस्तरणिहि घण-थण' हराह। हयहिंसणु रायणिं हेलणेसु
खतु विगम" णेहु तिल-पीलणेसु । मझण्णयालि गुण-गणहराहँ
परयार-गमणु जहिं मुणिवराहँ । सावधानी पूर्वक भगा देती हैं और गृहपति को उन्हें भगाने के लिए दौड़ना नहीं पड़ता)। जिस देश में नन्दनवन के वृक्ष फलों के भार से झुके रहते हैं और जहाँ वृक्षों पर कोकिल-कुल वाह-वाह-वाह (अर्थात् कुहू कुहू) करती रहती हैं। जिस देश में झरनों के जल निरन्तर बहते रहते हैं और जहाँ के स्थल मृगयूथों से सेवित हैं। पत्ता- जिस देश की नदियाँ पण्यस्त्री के समान हैं। नदियाँ और वेश्याएँ विस्तृत एवं रमणीय हैं। दोनों ही
मन्थर गमन करने वाली हैं। वेश्याएँ तो भुग गुण्डों के साथ संगम करने वाली हैं। नदियाँ भी सर्यों के साथ संग करने वाली हैं। वेश्याएँ स्वच्छ वस्त्र धारण करने वाली हैं। नदियाँ भी स्वच्छ जल को धारण करती हैं। इस प्रकार दोनों ही मनुष्यों के मन को हरने वाली हैं।। 8 ।।
(9) सोरठ देश की सुरम्यता और द्वारावती मगरी का वर्णन जहाँ मदोन्मत्त हाथी-हथिनियों के साथ प्रेमलीलाएँ किया करते हैं। जहाँ चन्द्रखण्ड के समान सरोवरों में कमल समूह उगे हुए हैं। जहाँ काव्य बन्ध में तो विग्रह (टेढा) शरीर (कार) होता है। किन्तु वहाँ कोई भी व्यक्ति वकारीर वाला (अथवा मायाचारी) नहीं होता। वहाँ के जन धर्मानुरागी तो हैं किन्तु विषयानुरागी नहीं। उस देश के लोग पाप से तो डरते हैं, किन्तु दुष्टों से नहीं। उस देश में पीन-पयोधर वाली मनोहर उत्तम तक्षणियों के स्तनों में तो कठोरता तथा मलिनपना (मासिक धर्म) था किन्तु अन्य व्यक्तियों में कठोरता एवं कलुषता नहीं थी। राजा की घुड़साल में घोड़ों का हींसना तो था किन्तु अन्य व्यक्तियों में हिंसा का भाव नहीं था। तिलीपन-यन्त्रों (कोल्हू) में स्नेह तिल) रहित खलपना तो था, अन्यत्र स्नेह (प्रम) रहित खतपना (दुष्टपना) नहीं था। जहाँ मध्याह्न काल में राह (मार्ग) तो गुणी गणों से दूर रहते थे (अर्थात् दोपहर में मार्ग में कोई नहीं चलता था, शून्य पड़े रहते थे) किन्तु अन्य कोई व्यक्ति गुणिगणों से दूर नहीं रहता या। जिस देश में मुनिवरों का तो परदार गमन (अर्थात् आहार के लिए दूसरों के गृहद्वार में गमन) होता था किन्तु अन्य कोई जन परदारगमन करने वाला नहीं था। जहाँ प्रिय का विरह केवल विधवाओं में ही था अन्यत्र कहीं प्रियविरह–इष्ट
(9) 1. अ. वे। 2.
"इ। 3. अ. हु। 4. 4. जिगउ ।
(४) 121वीग: : (B) पानीयं रसपर । (9) (1) मंद हगः गजे। (2) वेद निपटें । (3) मानीन दुर्लन ते रहित ।
तुनिरवेयः ।