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महाकद सिंह दिइउ पज्जपणचरित
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दुब्बयण-मारल-पूरिय-सदप्प
दुज्जीह-दुठ-दुज्जण-विसप्प । जे वपणे चउम्मुह किण्ह चित्ति दसणेण रुद्द अवयरिय भत्ति। धता- दुज्जण-गुण-झंपिरु-दोस-पपिरु सुयणु सहावें सद्दमइ।
पच्छण्ण मझच्छहँ करभि पसच्छह गुणदोसहुँ जहुँ पिउणमइ ।। 5 ।।
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पुणु पंपाइय" देवण णंदणु भवियण जण-मण-णयणा णंदणु । वुहयण-जण पय-पक्रय छप्पउ भणइ सिद्ध पणविय परमप्पउ। विउलगिरिहिं 'जह-हयभव-कंदहो समवसरण सिरि वीरजिणिंदहो । णर-वर खयरामर समवाएँ गणहरु पुछिउ सेणिय राएँ। मयरद्धयहो विणिज्जय-मारहो कहहि चरिउ पज्जुण्ण कुमारहो। अच्छि दीउ दीवंतर-राणउँ
जंबूतरु अहिणाण पहाणउँ। तासु मज्झि गिरि मेरु विसालउ णं णरवइ हरि करि परिपालऊ। जिनका स्वभाव है और जो दुर्वचन रूपी विष से भरे हुए दर्प युक्त दुष्ट जिह्वा वाले, निर्मम और दुर्जन रूपी सर्प के समान होते हैं, जो दुर्जन वचनों में चतुर्मुख (मुंहफट) कलुषित हृदय वाले, देखने में रौद्र और जो केवल ऊपर-ऊपर से भक्ति करने वाले होते हैंघत्ता- वे दुर्जन गुणों को तो झाँपते हैं और दोषों को प्रकट करते हैं, जब कि सुजन स्वभाव से स्वच्छ मति
वाले होते हैं। फिर भी गुण-दोषों में यथा निपुणमति मैं प्रच्छन्न-मध्यस्थ होकर प्रशस्तकाव्य का ही प्रणयन करूँगा।।5।।
कवि अपना संक्षिप्त परिचय देकर प्रद्युम्न-चरित-काव्यारम्भ के प्रसंग में राजगृह एवं
अन्य भारतीय भूगोल का वर्णन करता है पम्पा माता और देवण का पुत्र, भव्य जनों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाला, तथा बुध जनों के चरण कमलों का भ्रमर यह सिद्ध कवि परमात्मा को प्रणाम कर प्रद्युम्नचरित का वर्णन (प्रारम्भ) करता है
विपुलगिरि पर (राजगृह स्थित विपुलाचल पर) जहाँ कि भव के कंद (मूल मोहनीय कर्म) को नाश करने वाले श्री वीर जिनेन्द्र का समवशरण लगा था तथा जिसमें मनुष्य, विद्याधर और देवों का समुदाय (एकत्रित) था। वहाँ पर राजा श्रेणिक ने गणधर से पूछा (और निवेदन किया) ... कि वे काम के विजेता मकरध्वज (कामदेव पद के धारी) - प्रद्युम्नकुमार का चरित्र कहें।
(तब गौतम-गणधर ने उत्तर में कहा) जम्बू-वृक्ष के अभिज्ञान (चिह्न) से प्रधान तथा अन्य द्वीपों में श्रेष्ठ राजा के समान जम्बूद्वीप नामक एक द्वीप है, जिसके मध्य में विशाल सुमेरु पर्वत स्थित है। वह ऐसा प्रतीत होता है मानों सिंह और हाथी का परिपालक कोई राजा ही हो। वह सुमेरु पर्वत विस्तार में प्रचुर है। उसके दक्षिण
(5) 6. अ. 41 (6) 1. जि।
(6) (1)मलादेवी।