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1.5.7]
मत्ताकर सिंह विराउ पपुष्णचरिड
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जा भुजई आर-पर खयकालही रणधोरियहु सुअहो वल्लालहो। जासु भिच्चु दुजण-मण सल्लणु खत्तिउ गुहिल-उत्तु जहिं भुल्लणु ।
तहिँ संपत्तु मुणीसरु जावहिँ भव्वलोउ आणंदिउ तावहिं ।। घत्ता– णियगुण अपसंसिवि मुणिहि णमंसिवि जो लोएहिं अदुगुंछियउ।
णय-विणय समिद्धे पुणु कय सिद्धे जो जइवर आइच्छियउ ।। 4 ।।
अहो-अहो परमेसर वुह-पहाण सुविणंतर जो मइ कल्ल' दिछु तुम्हागमणे जाणियउ अज्जु णाणाविह कोऊहलहिँ भरिउ ता सिद्ध भणइ महु गरुव संक तहिं पुणु अम्हारिस कवण मित्त कुडिलत्थि कुडिलंगइ गमणलील
तव-णियम-सील-संजम-णिहाण । सो हउँ मणि-मण्णमि अइविसछु । ता' मुणिणा अँपिउ अइ मणोज्जु । तुहु तुरिउ करहिं पज्जुण्णचरित। दुम्जणहं ण छुट्टहिं रवि-मयंक । ण मुणहिँ जि कयाइ कवित्त-वत्त। परछिद्द-णिहालण इसणसील ।
के समान बल्लाल नामका राजा था, जो रणधोरी का पुत्र था। दुर्जनों के मन को काँटे के समान चुभने वाला क्षत्रियवंशी गुहिलोत गोत्रीय भुल्लण जिसका भृत्य (माण्डलिक, सामन्त अथवा गवर्नर) था। उस पट्टन में जब अमृतचन्द्र मलधारी मुनीश्वर पहुंचे, तब वहाँ के भव्य लोग बड़े ही आनन्दित हुए। घत्ता- अपने गुणों की प्रशंसा नहीं करने वाले उन लोक पूजित मुनिराज को नय-विनय गुणों से समृद्ध उस सिद्ध कवि ने नमस्कार कर उस पति की इस प्रकार स्तुति की।। 4 ।।
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गुरु-स्तुति तथा दुर्जन-सज्जन वर्णन हे परमेश्वर, हे बुधप्रधान, तप-नियम-शील एवं संयम के हे निधान, आप धन्य हैं, धन्य हैं, जिन्हें मैंने स्वप्न के मध्य कल देखा था उन्हें अपने मन में मैं अति-विशिष्ट मानता हूँ। आपके आगमन से मैंने आज उस (स्वप्न के रहस्य) को समझ लिया है।" यह सुनकर उन मुनिराज ने मधुर-वाणी में कहा—“तुम तुरन्त ही नाना प्रकार के कौतुहलों (कौतुकों) से भरे हुए प्रद्युम्नचरित का प्रणयन करो।" यह सुनकर सिद्ध कवि ने कहा-."मुझे (उक्त ग्रन्ध प्रणयन में) बड़ी भारी शंका (उत्पन्न हो रही) है। जब दुर्जनों से रवि और चन्द्र भी नहीं छूटे तब उनके सम्मुख हमारी कौन मात्रा (शक्ति)?"
जो (दुर्जन) पत्किंचित् भी कवित्व की वार्ता नहीं जानते, जो कुटिल नेत्र वाले, कुल को वींग लगाने वाले, गमन करने में (आचरण में) नील (भ्रष्ट) तथा दूसरों के दोषों को देखने वाले होते हैं। डसना (काट लेना)
(4) 6. अब
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(4) (8) हल्लाललो भिच्चु मुल्लणु।
(5) 1. अ. 'ल्लि। 2. अ "गे। 3. अ. सो। 4. अ. कुलडिं। 5. अ. पी।