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महाकड़ सिंह विरहाउ पजुण्णचरित
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तं सुणेवि जा जय महासई णिसुणि सिद्ध जंपइ सराई। घत्ता- आलसु संकेल्लहि हियउ म मेल्लहि मज्झु वयणु इउ दिछु धरहि।
हउँ मुणिवरबेसें कहमि विसेसें कब्बू किंपि तं तहु' करहि ।। 3 ।।
ता मलधारि देउ भुणि-पुंगमु माहवचंदु आसि सुपसिद्ध तासु सीसु" तब-तेय दिवायरु तक-लहरि झंकोलिय परमउ जासु' भुवणि दूरंतरु वंकिवि अमयचंदु णामेण भडार सरि-सर-णंदणवण-संछपणउ वंभणवाडव णामें पट्टणु
__णं पच्चक्खु धाणु' उच्च समु-दमु ।
जो खम-दम-जम-णियम-समिद्धउ । वय-तव-णियम-सील 'रयणायर । वर वायरण पउर पसरिय' 42"उ। ठिउ पछण्णु मयणु आसंकिवि। सो4) विहरंतु पत्तु वुह सारउ । मढ-विहार जिण-भवण रवण्णउ । अरिणरणाह-सेण्ण-दल-बट्टणु।
चाहता हूँ। अंधा होकर भी नवीन-नवीन पदार्थ देखने की इच्छा रखता हूँ। बहिरा होकर भी गेयगीत सुनने के लिए इच्छाशील हूँ। यह सुनकर (उसके हृदय की भावना जानकर) महासती सरस्वती ने "जा तू विजयी बने" इस प्रकार आशीर्वाद देकर कहा- "हे सिद्ध कवि, तू सुनधत्ता- आलस को सकेल, उसे हृदय में प्रवेश मत करने दे। मेरे इन वचनों को दृष्टि में घर, मैं मुनिवर
के वेश में विशेष रूप से कोई काव्य कहूँगी। तू उस काव्य की (अर्थात् उस काव्य के आधार पर ही अपने काव्य की) रचना कर ।। 3 ।।
कवि अपने गुरु अमृतचन्द्र एवं समकालीन राजा बल्लाल तथा मण्डलपति भुल्लण का परिचय देता है
वे सुप्रसिद्ध मुनिपुंगव, मलधारी माधवचन्द्रदेव धन्य हैं, जो प्रत्यक्ष ही उत्तम शम-दम, क्षमा, इन्द्रिय-जय आदि गुणों से समृद्ध हैं उनके शिष्य जग प्रसिद्ध अमृतचन्द्र नामके भट्टारक हुए, जो अपने तप के तेज से दिवाकर (सूर्य) के समान व्रत, तप-नियम एवं शील के रत्नाकर (समुद्र), अपनी तर्क-लहरी के द्वारा परमतों को झकझोर देने वाले तथा जो निर्दोष व्याकरण में पानी की तरह फैले हुए (प्रतिष्ठित) पद वाले थे (अर्थात् तर्क, न्याय और व्याकरण के उत्तम एवं सुप्रसिद्ध ज्ञाता थे) तथा जिनकी आशंका (भय) से मानों मदन भी प्रच्छन्न हो गया था। बुधों में सारभूत मुनिपुंगव वे अमृतचन्द्र भट्टारक विहार करते हुए बंभणबाड नामके उस पट्टन में पधारे, जो नदी, सरोवर एवं नन्दनवन से व्याप्त तथा मठ, विहार और जिन भवनों से सुशोभित था। उस पट्टन का शासक अर्णोराज जैसे पराक्रमी राजा के सैन्यदल को नष्ट करने वाला, शत्रु मनुष्यों के क्षय के लिए काल (यम)
(326. अ. ए। 7. 3 तु 147 1ज मु। 2.3.4 | 3. अ. "इ। 4. व दूरंतु तर। 5. अह ।
(4) (1) अमृतचन्द्र । (2) पिं. (3) अमृतचन्द्रश्य । (4) अभूतचन्द्र।
(51 प्राप्त । (6) ममणबाडे जट्टने । (7) पर टण।