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________________ 112] मटाकर सिंह विरइज पन्जुण्णचरित अन्य दार्शनिक बादों में नियतिवाद (11/16/10. 15/20/11) के भी उल्लेख मिलते हैं। यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि कवि ने उक्त सभी प्रसंगों में केवल उक्त शब्दावलियों के प्रयोग ही किये हैं। उनके विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किये। उनके विश्लेषण का कवि को वस्तुत: इतना अवसर भी नहीं था क्योंकि उससे ग्रन्थ का विस्तार अत्यधिक हो जाने की सम्भावना थी। अतः उसने इन प्रसंगों को प्रस्तुत कर रूढ़िगत परम्परा का निर्वाह ही किया है। (घ) भवान्तर अथवा पुनर्जन्म-वर्णन जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि जैन-चरित-काव्यों में भवान्तर वर्णन प्राय: अनिवार्य रूप से प्रस्तुत किए जाने की परम्परा है। इसका मूल कारण है-- जैन-दर्शन का आत्मा पर अटूट विश्वास । वह आत्मा को अजर-अमर मानता है। साथ ही वह यह भी मानता है कि संसार-चक्र में वह आत्मा अण्ट विध-कर्मों से आबद्ध होकर नरक, तिथंच आदि चतुतियों में जन्म-मरण रूप विविध प्रकार के भव-भवान्तरों में कष्टों को भोगता रहता है। जैनेतर-दर्शनों में इन्हीं भवान्तरों को पुनर्जन्म की संज्ञा से अभिहित किया गया है। प०० में इस प्रकार के भवान्तर प्रसंगों में प्रद्युम्न (4/14-17, 511-16, 6/1-23, 7/1–9) रूपिणी (9/7.. -11) कनकरथ (7–8) एवं कनकमाला (7/8/6-10, 7.9/1-3) के भवान्तर--प्रसंग उल्लेखनीय हैं। (ङ) अन्ध-विश्वास और लोकाचार ___मानव-जीवन में अन्ध-विश्वासों एवं लोकाचार का विशेष महत्व है। किसी कार्य-विशेष का आरम्भ अथवा इष्टजनों के स्वागत अथवा विदाई के समय उनके प्रति लोक-विश्वासों के आधार पर श्रद्धा-समन्वित-भावना से कुछ विशेष प्रकार के कार्य या रीति-रिवाज ही उक्त लोकाचारों एवं अन्ध-विश्वासों की श्रेणी में आते हैं। कवि में विविध-प्रसंगों में उनके उल्लेख किये हैं जो निम्न प्रकार हैं शकुन-सूचक– अन्ध-विश्वासों में कवि ने शुभ स्वप्न दर्शन (3/10/3-6), पुरुषों के दाहिने नेत्र एवं बाह का फरकना (13/7/6), स्त्रियों के बाएँ अंगों का स्फुरण (बामछि फुरेसइ, 7/10/8) एवं असमय में वनस्पति के प्रफुल्लित (7/10/7) हो जाने को उल्लिखित किया है। तथा अपशकुन सूचक – अन्धविश्वासों में कौवा (12/27/ 8) एवं शिवा (12/27/8) का बोलना, कबन्ध-नृत्य (12:27/8), एवं गिद्ध पंक्ति का नरपतियों के छत्रों पर बैठने (12/27/9) के उल्लेख किये हैं। लोकाचारों में कवि ने दूर्वा (3/3/1), दही (3/3/1), अक्षत (313:1), मुक्ताफल-चौक (3/3/3), मणिकलश का जल से भरकर रखने (3/3/3) का उल्लेख किया है। उपसंहार 1. पञ्जुण्णचरिउ अपभ्रंश-भाषा में लिखित प्रद्युम्न के चरित से सम्बन्ध रखने वला आद्य चरित काव्य है। अपभ्रंश के अद्यावधि उपलब्ध चरित-काव्यों में यही एक ऐसा काव्य-रत्न है, जिसने परवर्ती कालों में लिखें गए संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी के प्रद्युम्न चरितों पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है। 2. पज्जुण्णचरिउकार ने पौराणिक-महाकाव्यों एवं अन्य पूर्ववर्ती साहित्य से उपादानों का ग्रहण कर प्रस्तुत पौराणिक प्रबन्ध में भी सौन्दर्य-बोध की प्रतिष्ठा की है, क्योकि वह मनुष्य की एक शाश्वतिक प्रकृति है और
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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