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महाका सिंह बिराउ पन्जुण्णचरित
रहा होगा, जिसका कि प्रधान भोजन चवल, दाल एवं चावल से बने अन्य पदार्थ रहे होंगे। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि कवि ने पांच में भोज्य-पदार्थों में मोयय (इमली का रस, 11/21/19) एवं नारियल (15:3712) के उल्लेख किये हैं, जो कि दक्षिण-भारत में आज भी सहभोजी पदार्थों में प्रमुख हैं।
कवि ने विविध कोटि के फलों के नामोल्लेख किया है, जिनकी सन्द :- को -प्रकाश जायगी। इनको देखने से ऐसा विदित होता है कि इन उत्पादित फलों का स्थानीय-जन तो उपयोग करते ही होंगे सम्भवत: उनका निर्यात भी किया जाता रहा होगा। प०चा में केला (3/714), उच्छु (11717), एवं इक्षुरस (177), की भी चर्चा की गयी है। इससे बनी हुई शर्करा का भी उल्लेख किया गया है, जिससे विविध प्रकार के सुस्वादु मोदक (12/317), पानक (शरबत 15/3/12), आदि तैयार किये जाते थे। ये वस्तुएँ उस समय के लोगों की आजीविका के प्रधान साधन थे।
(2) वाणिज्य
आय के साधनों में दूसरा स्थान वाणिज्य का आता है। कवि ने प०च० में नगर वर्णन के प्रसंग में समृद्ध बाजारों (1/10/5), एवं हादों (11/11/12) की चर्चा की है। इनसे यह स्पष्ट होता है कि कवि-काल में वाणिज्य की स्थिति सन्तोषजनक थी। कवि ने बताया है कि द्वारावती के बाजार वस्त्रों (11:12/2), बर्तनों (11/12/2), लौह-भांडों (11/12/2), स्वर्ण-भांडों (11:12/1), कुम्भ-भांडों (11514, 11/12:1) एवं विलीनों (मणि-निर्मित-खिलणउ, 7/12/10) से भरे रहते थे। एक स्थल पर कवि ने बणियारा (10/10/3. 10/10/6) शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ बनजारा होता है। ये लोग आयातक एवं निर्यातक-व्यापारी के रूप में कार्य किया करते थे (10/10/6)। प०च० में हय, गज, एवं वसह (बैल) के बाजारों की भी चर्चा की गयी है (11:12/2)1 प्रतीत होता है कि पशुओं के ये बाजार गाँवों अथवा नगरों के बाहर भरे जाते होंगे।
(3) लघु उद्योग धन्धे
आजीविका के तीसरे साधन हैं लघु उद्योग धन्धे । कवि ने यद्यपि उनका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया, फिर भी कवि के प्रासंगिक-उल्लेखों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि निम्न उद्योग-धन्धे उस समय प्रचलित रहे होंगे
(क) वस्त्रोस्पादनोद्योग– जिसमें पुरुषों एवं महिलाओं के प्रतिपट ट एवं नेत (-रेशमी 1/10/5) वस्त्रों का उत्पादन होता है।
(ख) बर्तनोद्योग– जिसमें स्वर्णकलश (8/21/2), मणिकलश (3/3/3), स्वर्णथाल (11/21/2) जैसे कीमती बर्तनों तथा अन्य धातुओं के बर्तनों का निर्माण किया जाता था।
(ग) आभूषणोद्योग-- प०८० में विभिन्न प्रकार के स्वर्णाभूषणों के नाम मिलते हैं. जो उस समय के स्वर्णकार निर्मित किया करते थे। इस प्रकार के आभूषणों में केयूर (1/13/4, 1:14:2), हार (1/13/4, 1/14:2, 3/13/ 10), कुण्डल (1/13/4), कंकण (कंगन-1113:4), णेउर (नपुर 1/1335), मउड (मुकुट-1:14/2,53813, 14/ 15/7). मोत्तियदाम (मुक्तामाला-5/13/8), रयणावली (रत्नावली-6:4), झुमुक्क (झुमकी-10:216), अँगुलीउ (मुद्रिका-11/2/9) कडिसुत्त (कटिसूत्र-14/15/7)।
(घ) वस्त्र-सिलाई उद्योग— जिसमें तम्बू (2/14:8) एवं उल्लोवया (-चंदोवा-10:2:8), की विशेष रूप से