SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [103 निर्धनता के कारण वे धनिकों के यहाँ उनकी सेवा-शुश्रुषा कर अपनी एवं परिवार की आजीविका चलाती थीं । प०च० में दासी के दो रूपों का वर्णन मिलता है— दासी एवं धात्री रूप । दासी समस्त परिवारों में व्यक्तिगत परिचर्या के साथ-साथ घर-गृहस्थी के कार्यों को निष्ठा भाव से करती थीं । प०च० में रुक्मिणी की दासी (लज्जिका) इसी रूप में वर्णित है ।। प्रस्तावना धात्री की नियुक्ति बच्चों के पालन-पोषण के लिए की जाती थी। वे बच्चों की देखरेख. पालन-पोषण, कपड़े पहनना, खेल-खिलाना आदि कार्य करती थीं। इनका स्तर दासियों से ऊँचा होता था । सम्राट अशोक के चतुर्थ स्तम्भ लेख में भी बच्चों के लालन-पालन हेतु धायों की नियुक्ति की चर्चा आती है। इन धायों का स्थान विश्वसनीयता एवं में माला के बम ही होत. या (5) वेश्या प०च० में वेश्या के लिए 'पण्टत्तिय' (पण्य - त्रिया) शब्द का उल्लेख हुआ है।' कवि सिंह ने रूपाजीवा वेश्या की तुलना नदी से की है। उसके कथनानुसार नदी और वेश्याएँ विस्तृत और रमणीय होती हैं। दोनों ही मन्थर गति वाली हैं वेश्याएँ जहाँ स्वच्छ वस्त्र धारण करने वाली हैं, वहीं नदियाँ भी स्वच्छ जल धारण करती हैं। दोनों ही मनुष्यों के मन को हरने वाली हैं, बेश्याएँ तो भुजंग (गुण्डों ) के साथ रहती हैं और नदियाँ भुजंग-सर्पों के साथ संग करने वाली हैं । एक अन्य प्रसंग में उन्होंने वेश्याओं को हाव-भाव रस में निपुण कहा है।" इससे प्रतीत होता है कि उस काल में वेश्यावृत्ति का प्रचलन था तथा दुर्भाग्य के मारे अविवाहित जनों, विधुरों अथवा रसिक जनों का मनोरंजन कर वे समाज में समता वृत्ति उत्पन्न करने में सक्रिय योगदान किया करती थीं। बाण, दण्डी आदि आचार्यों ने भी वेश्याओं के विविध उल्लेख किये हैं । (6) आर्यिका महाकवि सिंह के काल में नारी का आर्यिका (साध्वी ) रूप अत्यधिक प्रतिष्ठित एवं पूजनीय माना जाता था । * जैन-सम्प्रदाय के अनुसार जो महिलाएँ सांसारिक सुख भोगों से विरक्त होकर दीक्षा धारण करती हैं, वे आर्यिका अथवा साध्वी कहलाती हैं। समाज में नारी के स्वस्थ विकास एवं अध्यात्म के क्षेत्र में उनकी प्रगति में आर्मिकाओं का रचनात्मक योगदान रहा है। भगवान महावीर ने जिस चतुर्विध संघ की स्थापना की थी, उनमें आर्यिका अथवा साध्वी का द्वितीय महत्वपूर्ण स्थान था । आर्मिकाओं के त्यागपूर्ण आचार-विचार एवं कठोर तपश्चर्या के विषय में महाकवि सिंह ने अनेक स्थलों पर उल्लेख किए हैं। ऐसे प्रसंगों में राजकुमार प्रद्युम्न की दीक्षा महोत्सव के उत्सव पर दीक्षा धारण करने वाली परिवार एवं राज्य की प्रधान महिलाएँ प्रमुख है। 10 राजकन्याओं द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का भी उल्लेख उपलब्ध है। इतना ही नहीं, निम्न जाति की कन्याओं के दीक्षा एवं तपश्चर्या के वर्णन भी उक्त ग्रन्थ में द्रष्टव्य है । 12 प०च० में श्रमण धर्म का पालन करने वाली स्त्रियों के संघ का भी उल्लेख है और वह उस संघ की प्रधान गणिनी कहलाती थी । 3 आचार्य हरिभद्र ( 8वीं सदी) ने भी अपनी समराइच्चकहा में साध्वी संघ की प्रधान को गणिनी की संज्ञा प्रदान की है। 1. पच 4/4:15 1 2. वहीं 6/4:9, 8:19:4, 9717271 3. प्रियदर्शी अशेक का चतुर्थ स्तम्भ लेख। 4. चरित 2, 751 8 दशकुमारचरित 2. पृ० 16-681 9 0 9:57 13. वही / 12 6. 48, /10/13 12. वही0, 9:51:21 7. 14. सन्०क० 2, पृ० 14 तथा 7, पृ0 6131 1/8/10 1/10:31 5. पीए 1809-101 10. वहीं0 15:21:151 11. दर्द 65/61
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy