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________________ 102] महाका सिष्ठ विराउ पज्जुण्णचरित या।। माता-पिता कन्या का पालन-पोषण बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से करते थे। उनके लिए धाय नियुक्त रहती थी। माता-पिता के पूर्ण अनुशासन में रहकर वह अपना यथेच्छ विकास कर सकती थी। राजकन्याएँ युवावस्था को प्राप्त होने पर स्वेच्छा से अपने भावी-पति का वरण कर सकती थी। यद्यपि तत्कालीन समाज के लोगों में कन्या के प्रति स्नेह-भावना थी, फिर भी युवावस्था को प्राप्त, सौन्दर्य-युक्त कन्या के अपहरण का उल्लेख भी प्रस्तुत ग्रन्थ में हुआ है। कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उससे विवाह किया था। किन्तु इस प्रकार की भावना प्रायः राजघरानों तक ही सीमित दिखलायी पड़ती है। (2) पत्नी प०च० में पत्नी को गृहिणी, घरिणी, महादेवी', प्रिया", प्रियतमा' आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। कवि ने दाम्पत्य प्रेम एवं उनकी विभिन्न क्रियाओं का वर्णन किया है।10 कर्तव्य-शील पत्नी गृहस्थी का केन्द्र-बिन्दु होती थी, क्योंकि उसीकी सहायता से समस्त परिवार धर्म, अर्थ एवं काम का सम्पादन कर पाते थे। पति-पत्नी हृदय से एक-दूसरे को प्रेम करते थे। उसे घूमने-फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। इससे प्रतीत होता है कि परिवार में पत्नी की प्रतिष्ठा थी। वसंगचरित। एवं आदिपुराण में भी उसकी प्रतिष्ठा एवं स्वतन्त्रता के वर्णन मिलते हैं। प०३० में पत्नी के रूप में नारियों को पति के साथ-साथ सास-ससुर तथा गुरुजनों के आदर करने की सलाह दी गयी है। (3) माता भारतीय-संस्कृति में नारी के माता-रूप को बड़ी श्रद्धा एवं आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा है। नारी-जीवन का चरम लक्ष्य मातृत्व की प्राप्ति ही है। प०च० में नारी के जननी-रूप का मार्मिक-चित्रण मिलता है, उसे अनेक शब्दों से अभिहित किया गया है—माउला. अम्मिा, भाइ, मायरि । मनुस्मृति में माता को पिता से भी सहस्र गुना अधिक पूजनीय माना गया है।18 आदिपुराण में माता की वन्दना करते हुए उसे तीनों लोकों की कल्याणकारिणी कहा गया है। सुप्रसिद्ध जैन ग्रन्थ उपमितिभवप्रपंच कथा' में कहा गया है कि परिवार में माता का स्थान पिता से उच्च था। पच० में जब राक्षस धूमकेतु प्रद्युम्न का हरण कर ले जाता है, उस समय रुक्मिणी का रुदन पाषण-हृदय को भी पिघला देने वाला सिद्ध होता है। वह दहाड़ मारकर रोती है और चेतनाशून्य हो जाती है, मूर्छा टूटते ही वह माथा-धुनती हुई विलाप करती है और कहती है कि मेरा हृदय शत-शत खण्ड होकर फट रहा है। कभी वह हृदय को अपने हाथों से पीटती है, तो कभी गिर पड़ती है, और कहती है "हाय देव, मैं अब पुत्र के बिना जीवित नहीं रह सकती, मैं तो अब जलती हुई चिता में प्रवेश करूँगी। मेरे हृदय को शोकजाल में डुबाकर, हा सुत, हे बाल, तू कहाँ चला गया?"2| प्रद्युम्न की माता का यह करुण-रुदन हमें वाल्मीकि रामायण के कौशल्या-रुदन का स्मरण कराता है। जब राम वनवास के लिए चले जाते हैं. तब उनकी माता कौशल्या इसी प्रकार का गगनभेदी रुदन करती है। (4) दासी प०च० में नारी के दासी रूप का भी उल्लेख हुआ है। नारी का यह रूप निर्धनता का प्रतीक है। 10. वहीः 64/9। 2. वही। 3. वाह. 641 4. वही, 2151 5. वही, 63.31 1. वहीं 417121 7. बही11/6/151 8. दही० 4:13/111 9. बली: 5/1181 10. वहीय. 33,341 11. RDED. 1950-93, 12. आरपु: 476 13. पच० 47| 14. पड़ी. /18 | 15. वही.. 8/1RI 16. वठी, 9:2:8| 17. वहीं०. 9/3/7| 1. मनुस्मृति. 21451 14. आye. 131301 20 उपमिति भव प्रपच कथा, ya |53| 21 सत्रः, 4/581 22. वाल्मीकि र.माम् का राम-वन गमन प्रकरण द्रष्टव्य। 23.40च: 4:415।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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