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प्रस्तावना
[101 (ट) पाणिग्रहण-संस्कार
पाणिग्रहण संस्कार के समय वर-वधू को एक विशेष वेदिका पर बैठाया जाता था और मन्त्रोच्चार के साथ यह क्रिया सम्पन्न की जाती थी और वर-वधू के लिए सप्त-स्वरों का उच्चारण किया जाता था। पच० में इस संस्कार का इसी प्रकार उल्लेख हुआ है। पन्च० में प्रद्युम्न के पाणिग्रहण के समय बलदेव. कृष्ण का नाम लेकर मनोहर गीत गाये गये और इस प्रकार विविध गप लगा दिवस ता उलते रहे।
(ठ) दान-देना
प०च० में विवाह के पश्चात् ब्राह्मणों को दान देने का वर्णन आया है दान में गाय. भवन, स्वर्ण, ग्राम. नगर, हाथी, घोड़ा, रथ आदि का उल्लेख हुआ है । इसके साथ ही दीन-दुखी याचकों तथा वैतालिकों को भी स्वर्ण दान दिया जाता था। आदिपुराण में भी विवाह के अवसर पर दान देने की क्रिया का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि विवाह के अवसर पर दान की प्रथा अत्यन्त प्राचीन है जो कवि सिंह के समय तक ज्यों की त्यों विद्यमान थी। उस समय ब्राह्मण को इतना पूज्य माना जाता था कि लोग उसे दान देना अपना परम कर्तव्य समझते थे।
(ड) दहेज
दहेज-प्रथा प्राचीन-भारतीय वैवाहिक पद्धति रही है। कवि सिंह ने प०च० में सम्पन्न विवाह प्रसंगों में उसकी पर्याप्त चर्चा की है। इस प्रथा पर विचार करने से विदित होता है कि समृद्धि एवं आत्म-वैभव प्रदर्शन ही इसका मुख्य उद्देश्य था । जटासिंहन्दि कृत 'वरांगचरित' में भी इस प्रथा का उल्लेख हुआ है। आदिपुराण में इस दहेज को अन्वयिनिक कहा गया है। प०च० में प्रद्युम्न-विवाह के अवसर पर रत्नों सहित कोष, सेना, सेनापति आदि बहुमूल्य सामग्रियों को कुण्डिनपुर के राजा रूपकुमार ने दहेज के रूप में वर-वधु को भेंट की थी।' (इ) नारी __ प्राचीन भारतीय-साहित्य रूपी भित्ति पर नारी-जीवन के अनेकों चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं, जिन्हें देखकर नारी की महानता का स्पष्ट बोध होता है। वैदिक युग से नारी पुरुण की सहचरी के रूप में मानी गयी है और वह सामाजिक उत्थान में अपना बहुमुखी योगदान देती रही है। ऋग्वेद की ऋचाओं के निर्माण में नारियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। फिर भी डॉक्टर पी०वी० काणे के अनुसार उत्तरकाल की नारी की स्थिति वैदिकयुगीन नारी की स्थिति से अच्छी थी ।।। प०च० में कवि ने नारी के विविध रूपों पर अच्छा प्रकाश डाला है। तत्कालीन नारी की सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति प्राय: सन्तोषजनक थी। यद्यपि एक ओर उसे बहु-विवाह प्रथा के कारण हीनोन्मुखी बनने के अधिक अवसर प्रदान किये जा रहे थे, तथापि दूसरी ओर वह मात्र भोग्या भी नहीं समझी जाती थी। उसे आत्म-विकास के पर्याप्त अवसर प्राप्त थे। प०च० में नारी के विभिन्न रूपों यथा- कन्या, पत्नी, माता, दासी, वेश्या तथा साध्वी रूपों के भी दर्शन होते हैं।
(1) कन्या पाच० में कन्या' आदर की पात्रा रही है। महाकवि सिंह के युग में कन्या को लक्ष्मी का रूप माना जाता
1. वहीद, 1477:51 2. वह 14/7/013. उही0, 14/7/101 4. वही०. 11/16:11-121 5. वही0. 14777-8। 6. आogo. 7268-701 1. वावर 19/21-23: 8. आःपुः 8/36. 9. पाच 15718-101 10. ऋग्वेद, 3:809|| 11. धर्मशास्त्र का इतिहास भाग 1, 70 3241 12.00 ris, 15:131