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________________ 1001 महाफा सिंह विराज पञ्जुण्णचरित बहुमूल्य उपकरणों द्वारा किया गया। स्वर्ण-जटित ठोस-स्तम्भों से मण्डप बनवाया गया। पूर्व भाग की दीवारों को सूर्यकान्त-मशियों, पश्चिम की दीवारों को चन्द्रकान्त-मणियों से सजाया गया। मरकत-मणियों से जटित कलश रखे गये। चारों प्रवेश-द्वार कदली-स्तम्भों से सुनिर्मित किये गये, जिन पर सुरुचि सम्पन्न दिव्य तोरण लटकाये गये तथा चतुर्दिक छत्र, चमर, ध्वजा, दर्पण एवं रंग-बिरंगे दिव्य-वस्त्रों से उन्हे आच्छाादेत किया गया। (घ) ब्राह्मण-भोज विवाह के पूर्व ब्राह्मणों को भोज देने का वर्णन भी पच० में आय है। इससे प्रतीत होता है कि उस समय शुभ-कार्यों से पूर्व ब्राह्मण-भोज दिया जाता था। (ङ) ब्राह्मणों द्वारा मंगलगान वैवाहिक-कार्यों में ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण योगदान रहता था। वे बिबाह-सम्बन्धी धार्मिक क्रियाएँ, मंगलोच्चार आदि के उत्तरदायित्व का निर्वाह करते थे। (च) कामिनी-नारियों का गीत एवं नृत्य विवाह को जीवन का सर्वश्रेष्ठ सुखद-काल माना गया है। रसवन्ती युवती-महिलाएँ आह्लादित होकर विवाह-काल में विविध शृंगारिक गीत एवं नृत्य प्रस्तुत कर अपने मन की भावनाओं को व्यक्त कर वातावरण को मधुमय बना देती हैं। प०च० में इस प्रकार के गीतों एवं नृत्य के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। प०च० के अनुसार इन अवसरों पर मृदंग, कसाल, वंसाल, ताल, डक्क आदि अनेक वाद्य बजाये जाते थे।' (छ) वर-वधु का अभिषेक शुभ मुहुर्त में वर-वधु का स्वर्ण-कलशों से अभिषेक किया जाता था। तत्पश्चात् वर-वधु का अलंकरण? एवं लान आने पर दोनों योग्य आसन ग्रहण करते थे। (ज) परस्पर-वदनावलोकन पच0 में विवाह के समय परस्पर वदनावलोकन का वर्णन भी आया है।' सम्भवतः यह क्रिया इसलिए आवश्यक थी कि वर-वधू एक दूसरे को ठीक से समझ लें तथा आश्वस्त हो जायें कि उनका विवाह उनके स्वर्णिम भविष्य के लिये आवश्यक है। यदि कोई भ्रम हो तो उसके निवारण का भी यही समय है और यदि अधिक सन्देह हो तो अभी सम्बन्ध-विच्छेद भी किया जा सकता है, क्योंकि विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद विच्छेद सम्भव नहीं था। बौधायन-धर्म-सत्र में भी इस क्रिया का उल्लेख मिलता है।10 (झ) उत्तरीय (चादर) वस्त्र का पारस्परिक परिवर्तन विवाह-मण्डप में परस्पर में उत्तरीय-वस्त्र को बदलने का उल्लेख भी प०च में मिलता है ।। इससे प्रतीत होता है कि सम्भवत: उस समय सिले-सिलाये वस्त्रों का प्रयोग बहुत कम किया जाता होगा। उस युग में उतरीय एवं अधोवस्त्र (धोती) का अधिक प्रचलन था। वैवाहिक-प्रसंगों में वर-वधू के इस परिवर्तन का उद्देश्य पारस्परिक स्नेह-सम्बन्धों का संस्थापन तथा विश्वास का प्रकाशन ही रहा होगा। वर्तमान युग में भी यह नियम प्रचलित है। 1. पञ्च० 414/1-101 2. वहीo. 117:11:21। 3. चि. 14611 4. यही०. 144:13, 14/6/51 5. दही0 14:63। 6. वही, 14369। 7. वही, 6:8. वहीद, 14:6:12। 9. वही। 10. धर्मशास्त्र का इतिलार भाग । पृ. 304! 11. गपः , 14:61:।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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