SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना प्रतिलिपि के समय यदि गलती से मूल विषय में कोई वर्ण, शाब्द, पद अथवा चरण या पंक्ति लिखने से छूट गयी है तो प्रतिलिपिकार ने उसी पाष्ठ के किती हाँशिए में पंक्ति संख्या लधा एक सांकेतिक चिरन देकर अंकित कर दिया है। इस प्रति के लिपिक श्रीकृष्णदास हैं, जिन्होंने किसी ब्रहाचारी लाखा की प्रतिलिपि के आधार पर इसकी प्रतिलिपि विसं0 1553 के भाद्रपद मास की पूर्णमासी, बुधवार को की थी। प्रतिलिपिकार ने अपना स्वयं का परिचय नहीं दिया है, किन्तु ब्रह्मचारी लाखा के संक्षिप्त परिचय के क्रम में कुछ भट्टारकों एवं प्रतिलिपि के लेखन-कार्य में प्रेरक एक परिवार की चर्चा की है। उनके अनुसार ब्रह्मचारी लाखा, मूलसंध, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ एवं कुन्दकुन्दाचार्य के आम्नाय के पालक भट्टारक श्रीकीर्तिदेव के शिष्य थे। भट्टारक श्रीकीर्तिदेव की परम्परर निम्नप्रकार है पद्मनन्दिदेव शुभचन्द्रदेव (वि सं0 1450-1507) . जिनचन्द्रदेव (वि०सं० 1507-1571) आचार्य श्रीकीर्तिदेव ब्रह्मचारी लाखादेव लिपिकार-प्रशस्ति में उक्त भट्टारक-परम्परा के विषय में विशेष परिचय नहीं मिलता। पावलियों. मूर्तिलेखों एवं प्रशस्तियों में उक्त पद्मनन्दि देव, शुभचन्द्रदेव एवं जिनचन्द्रदेव के नाम तो मिलते हैं, किन्तु आचार्य श्रीकीर्तिदेव तथा उनके शिष्य लाखादेव के नाम उस परम्परा में उल्लिखित नहीं हैं। नीतिवाक्यामृत- की एक प्रशस्ति में भ० जिन चन्द्र के शिष्य रत्नकीर्ति का उल्लेख है। बहुत सम्भव है कि उक्त नाम में से रत्न शब्द किसी कारणवश त्रुटित हो जाने के कारण वह कीर्तिदेव के नाम से उल्लिखित हो गया हो। उक्त रत्नकीर्तिदेव अथवा कीर्तिदेव के शिष्य ब्रह्मचारी लाखा भट्टारक नहीं, एक सामान्य ब्रह्मचारी रहे होंगे। अत: पट्टावलि में उनके नाम का नहीं मिलना स्वाभाविक है। ब्रहाचारी लाखा को उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि की प्रेरणा सम्भवतः अणभू नाम की महिला से प्राप्त हुई थी। शाह एवं राजा जैसे विशेषण देखकर ऐसा लगता है कि उनका परिवार सम्भवत: राजन्य वर्ग का था। अगभू ने अपने दशलक्षणव्रत के उद्यापन की स्मृति में इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि कराई थी। उसकी कुल परम्परा निम्न प्रकार है: राजा (पत्नी फोदी) शाह महलू (पत्नी - पूरी) शाह नाथू हम्फराज ताल्हण (पत्नी-अणभू) 1. दे० भर दारक सम्प्रदाप. 5099-100, लेखांक 253 बही 20 102, लेखांक 258
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy