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न्यायरत्नसार: पाठ अध्याय पर संग्रहाभास :
सूत्र-तद्विपरीताभिप्रायस्तदाभासः ।।१२।।
ध्याख्या-पर-संग्रहनय के अभिप्राय से विपरीत जो अभिप्राय है वह पर-संग्रहनय का आभास है। इस पर-संमड्नयाभास में वेदान्तवादी आदि अद्वैतवादियों की मान्यता आती है । क्योंकि इनकी मान्यतानुसार गुण-पर्यायरूप कोई विशेष पदार्थ नहीं हैं । पर-संग्रहनय भी इनका प्रतिपादन नहीं करता है परन्तु फिर भी वह उनका खण्उन भी नहीं करता है सिर्फ वह अपने ही विषय का कथन करता है । इस तरह समस्त अद्वैतवादियों की मान्यताएँ इस पर-संग्रहनयाभास में परिगणित हुई हैं ॥१२॥ अपर-संग्रहनय :
सूत्र-द्रव्यत्वाद्यवान्तर सामान्य-विषयकः स्थव्यक्तिधूदासीनोऽभिप्रायः, अपरसंग्रहः ॥१३॥
व्याल्या-द्रव्यत्व, पर्यायत्व आदि रूप अपर-सामान्यों को बिषय करने वाला और उन अपरसामान्यों के आधारभूत व्यक्तियों में उदासीनभाव रखने वाला नय अपर-संग्रहनय है। धर्मास्तिकायादिक जो द्रव्य के भेद हैं उनमें इस नय का ऐसा अभिप्राय रहता है कि द्रव्यत्व-सामान्य की अपेक्षा ये धर्मास्तिकायादिक द्रव्य एक हैं। इस तरह पर-संग्रहनय का क्षेत्र विस्तृत है और अपर-संग्रहनय का क्षेत्र संकुचित है, पर-संग्रहनय एक रूप ही होता है और अपर-संग्रहनय भिन्न-भिन्न जातियों की अपेक्षा अनेक भेद वाला होता है ।।१३॥ अपर-संग्रहाभास :
सूत्र-विशेषापलापी द्रध्वत्वावि सामान्यमात्रमन्यानोऽभिप्रायस्तयामासः ।।१४।।
ध्याख्या-अपर-संग्रहनय का जैसा स्वरूप प्रकट किया गया है ठीक उस से विपरीत स्वरूपवाला अभिप्राय अपर-संग्रहनयाभास है । अपर-संग्रहलय के द्वारा उसके विशेषों का संग्रह किया जाता है, उनका निराकरण नहीं किया जाता तब कि अपर-संग्रहाभास के द्वारा अपर-सामान्य के आधारभूत व्यक्तियों का निराकरण किया जाता है ।।१४।। व्यवहारनय :
सूत्र-संग्रहेण संकलित सामान्यभेद-प्रभेदविधाय व्यबहार-प्रथमावतारकोऽभिप्रायविशेषो व्यवहारः ॥१५॥
व्याख्या-पर-संग्रहनय और अपर-संग्रहनय के द्वारा विषय किये गये परसामान्य एवं अपरसामान्य के भेद-प्रभेद करके जो उसे व्यवहार के योग्य बनाता है ऐसा अभिप्रायविशेष ही संग्रहह्नय है । यह व्यवहारनय संग्रह के विषयभूत सामान्य को व्यवहार मार्ग में इस अभिप्राय से उतरता है कि सामान्य से लोक व्यवहार नहीं चलता है । लोक व्यवहार तो विशेष से ही चलता है । नीली-पीली आदि जो व्यक्ति विशेष ही दोहन क्रिया में उपयुक्त होता है गोत्व नहीं । अतः संग्रहनय का जो विषय जो सामान्य है वह द्रव्य रूप है या पर्यायरूप है। यदि द्रव्यरूप है तो वह जीव द्रव्यरूप है या अजीव द्रव्यरूप है । यदि जीवद्रव्य रूप है तो वह संसारी जीव रूप है या मुक्तजीव द्रव्यरूप है इत्यादि रूप से यह नय वहाँ तक भेद-प्रभेद करता है कि फिर जिसके आगे और भेद कल्पना नहीं होती है ॥१५॥