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मालार:
नय के सामान्य भेद :
सूत्र-सक्षेप-विस्ताराभ्यामपि नयस्य वैविध्यमुक्तम् ॥ ४ ।।
व्याख्या—संक्षे पनय और विस्तारनय के भेद से भी नय के दो भेद कहे गये हैं । गमादि नयों की अपेक्षा यद्यपि मयों के सात भेद ऊपर बतलाये जा चुके हैं फिर भी यहाँ भेद ये कहे गये हैं वे उन सात भेदों के संग्राहक हो जाते हैं इसलिये कहे गये हैं। संक्ष.पनय की अपेक्षा भी नय के दो विभाग हो जाते हैं। एक विभाग द्रव्याधिक रूप होता है और दूसरा विभाग पर्यायार्थिक रूप होता है । विस्तार की अपेक्षा जितने बचना हैं वे सन्त्र नय रूप हैं. इस कथन के अनुसार अनेक अपरिमित भेद हो जाते हैं। नैगमनय, संग्रहनय एवं व्यवहारनय ये आदि के तीन ३ नय द्रव्याथिक नय में और शेष ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरुवनय और एवंभूतनय ये चार नय पर्यायाथिकनय में अन्तहित हो जाते हैं ।। ४ ।।
सूत्र--संक्षेपतो नयो विविधो-द्रव्यपर्यायाथिक विकल्पात् ।।५।।
व्याख्या—इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने पूर्वोक्त विषय का ही स्पष्टीकरण किया है। यहाँ संक्षेप शब्द का अर्थ "संक्षेप विधि को आश्रित करके" ऐसा है । इस तरह द्रव्याथिकनय और पर्यायाधिकनय, ये दो भेद नय के संक्षेप से हैं । केवल द्रव्य को ही विपय करने वाला द्रव्याथिकनय है और केवल पर्याय को ही विषय करने वाला पर्यायाथिकनय है । द्रव्य के गुणों को भी विषय करने वाला पर्यायाथिक नय ही है। अतः स्वतन्त्र गुणाथिकमय नहीं माना गया है ।। ५॥
सूत्र--विस्तरतो नयोऽनेकविधः ॥ ६ ॥
ध्याल्या विस्तार की अपेक्षा नय अनेक प्रकार कहा है क्योंकि बस्तुस्वरूप के प्रतिपादक जन के विचार विविध प्रकार होते हैं, एक ही प्रकार के नहीं । इसलिये इन्हें नियत संख्या से बांधा नहीं जा सकता है। प्रतिपत्ता या प्रतिपादक जन के जो अभिप्राय हैं, वे ही सो नय हैं। इसलिये विस्तार की अपेक्षा नय को अनेक प्रकार का कहा गया है ॥ ६ ॥ द्रव्याथिक नय के भेद :-.
सूत्र-गमसंग्रहव्यवहारविकल्पैस्त्रधा द्रव्याथिकः ॥ ७ ॥
व्याख्या-नेगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय के भेद से द्रव्याथिकनय तीन प्रकार का कहा गया है। इन नयों का स्वरूप आगे के सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया जाने वाला है अतः यहाँ वह नहीं लिखा।। ७॥ नंगमनय :
सूत्र--गौणमुल्यभावेन पर्याययोर्द्रव्ययोव्रव्यपर्याययोश्च विवक्षणात्मको नंगमनयः ।। ७ ।।
व्याख्या-जो अभिप्रायविशेष दो पर्यायों की, दो द्रव्यों की और द्रव्यपर्याय की मुख्य और गौण रूप से विवक्षा करता है, ऐसा वह वक्ता का अभिप्राय ही नैगमनय है । यह नंगमनय "नेकेगमात्रोधमार्गाः यस्य स नंगमः" इस कथन के अनुसार अनेक प्रकार के उपायों द्वारा वस्तु का बोध कराता है । कभी यह दो पर्यायों में से किसी एक पर्याय को मुख्य करके और किसी एक पर्याय को गौण करके वस्तु का कथन करता है तो कभी दो द्रव्यों में से किसी एक द्रव्य की मुख्यता करके और दूसरे द्रव्य की गौणता करके उसका कथन करता है । कभी यह द्रव्य और पर्याय में किमी की मुख्यता और किसी को मौणता करके कथन करता है । जैसे-जब ऐसा कहा जाता है कि 'आत्मा में सत्त्व से युक्त चैतन्य है ।' यहाँ सत्व और चैतन्य ये दो गुणरूप पर्यायें हैं और इनका प्रतिपादन आत्मारूप एक वस्तु में हुआ है परन्तु यहाँ चैतन्य १. "जावश्या वयणपहा तावश्या हुति णमयाया"