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षष्ठोऽध्याय
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नय का स्वरूप :
सूत्र-प्रमाणाधिगतवस्तून्यनन्तमिण्येककाशपर्यवसायीतरीशानपलापीज्ञातुरभिप्रायोनयः ।। १ ।।
__ व्याख्या-अनन्त धर्मों की पिण्ड रूप वस्तु में से जो कि श्रत प्रमाण से अधिगत हुई है किसी एक-एक विवक्षित धर्म की मुख्यता करके और शेष धर्मों को गौण करके उस वस्तु का उस एक विवक्षित हुए धर्म प्रतिपादन करने वाले वक्ता का जो अभिप्रायविशेष है उसका नाम तय है।
प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण की संख्या, प्रमाण का विषय, प्रमाण का फल, प्रमाणाभास, संख्याभास, विषयाभास, एवं फलाभास का निरूपण करके सूत्रकार ने इस ग्रन्थ के समाप्ति करने के अभिप्राय से नय और नयाभासों का निरूपण इस छठवें अध्याय में किया है । सबसे पहले उन्होंने नय का क्या स्वरूप है, यही इस सूत्र द्वारा समनाया है। प्रत्येक जीवादिक बस्तु अनन्तधर्मात्मक है। इस अनन्तधर्मात्मक वस्तु को जानने वाला श्रत प्रमाण है, नय नहीं । क्योंकि नय में धुगपत् अनन्त धर्मों को जानने की क्षमता नहीं है। यह तो वस्तु का प्रतिपादन उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करके और शेष धमों को गौण करके ही करता है । अतः प्रतिपादन करने वाले वक्ता का इस प्रकार का जो अभिप्रायविशेष है वही नय है ।।१।। नय के भेद :
सूत्र-नै पमसंग्रहत्यवहारर्जुसूत्रशब्दसममिदेवभूतभेदात् स सप्तविधः ॥ २॥
व्याख्या--नंगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूत नय के भेद से नय सात प्रकार का कहा गया है। अनन्त धर्मों वाली वस्तु में से एक धर्म को ग्रहण करके और उसे ही मुख्य करके नय उस वस्तु का कथन करता है । अतः नय का विषय वस्तु का एक धर्म-अंशही होता है, यह नय का सामान्य लक्षण है । इनके भेदों के नाम सूत्रोक्त है । ग्रन्थकार इनका सलक्षण कथन स्वयं आगे सूत्रों द्वारा कर रहे हैं अतः इनका स्वरूप हमने यहां नहीं कहा है ।। २ ।। नयाभास :--
सूत्र-स्वेप्सितधर्मावितरांशापलापी सस्याभासः ॥३॥
व्याख्या-नय का जैसा लक्षण पूर्व में प्रकट किया जा चुका है उसके अनुरूप न होकर उससे विपरीत स्वरूप वाला नयाभास होता है। नयाभास केवल अपने ही अभिलषित धर्म का मण्डन करता हुआ वस्तु में रहे हुए शेष अन्य धर्मों का खण्डन करता है। इस तरह अन्यतीर्थिक जनों के जो सर्वथा नित्य रूप या सर्वथा अनित्य रूप प्रतिपादक अभिप्राय विशेष हैं, वे सब नयाभास रूप हैं ऐसा इस कथन से पुष्ट हो जाता है ॥ ३ ॥
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