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न्याय रस्मसार पंचम अध्याय
साथ भी समझ लेना । इस प्रकार प्रमाता-आत्मा से अज्ञाननिवृत्ति आदि रूप क्रिया कश्चित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है ऐसा अनेकान्त इन दोनों में सुस्थापित हो जाता है ॥१२।। प्रमाण फल-व्यवहार में वास्तविकता :
सूत्र--प्रमाणफसध्यवहारोऽवितथोऽभिप्रेतानाभिप्रेत साधन दूषणत्वान्यथानुपपशेः ।।१३।।
अर्थ-यह प्रमाण है और यह प्रमाण का फल है ऐमा जो व्यवहार है, बह पारमार्थिक है । यदि ऐसा न माना जावे तो फिर स्व-पक्ष की सिद्धि और पर-पक्ष का निराकरण नहीं किया जा सकता है।
व्याख्या-प्रमाण और फल व्यवहार को कितनेक दार्शनिकों ने काल्पनिक माना है । सो उनका ऐसा कहना इसलिये ठीक नहीं है कि वे अपने इस पक्ष की सिद्धि बिना प्रमाण प्रस्तुत किये कैसे कर सकते हैं । प्रमाण मिथ्या है और प्रमाण का फल मिथ्या है ऐसी मान्यता माध्यमिक शून्यवादी की है ।।१३।। प्रमाणाभागाति का कथन- --
सूत्र-तत्तल्लक्षणादिविहीनं तत्तद्वधववभासते तत्तदामासं तच्चतुविधं स्वरूप-संख्या-विषयफलाभास मेवात् ।।१४।।
व्याख्या-प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण की संख्या, प्रमाण का विषय और प्रमाण का फल जैसा कहा जा चुका है उससे भिन्न प्रमाण का स्वरूप मानना जैसा कि अन्य सिद्धान्तकारों ने कहा है वह प्रमाणस्वरूपाभास है। प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों के अतिरिक्त और प्रमाण के भेदों की मान्यता प्रमाण संख्याभास है । प्रत्येक प्रमाण के सामान्य और विशेषरूप विषय के सिवाय स्वतन्त्र सामान्य या विशेष को बिषय करने वाला प्रमाण है ऐसी मान्यता प्रमाण विषयाभास रूप है । तथा जो प्रमाण का फल कहा गया है वह उससे सर्वथा भिन्न या सर्वज्ञा अभिन्न है, ऐसा मानना प्रमाण फलाभासरूप है। इस तरह अपने स्वरूप, संख्या, विषय और फल की अयथार्थता के कारण प्रमाणाभास चार प्रकार का हो जाता है ॥१४॥ प्रमाण स्वरूपाभासों का नाम निर्देश
सूत्र-प्रमाणस्वरूपामासा अज्ञानात्मकानात्मप्रकाशक - स्वमात्रावमासक - निर्षिकरुप समारोपाः ॥१५॥
व्याख्या...१४व सूत्र द्वारा जो प्रमाणाभास चार प्रकार का कहा है सो उसी के प्रथम भेद रूप प्रमाणस्वरूपाभास के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण इस सूत्र द्वारा किया गया है। यहाँ यह समझाया गया है कि सन्निकर्ष आदि को जो कि अज्ञानरूप हैं प्रमाण का स्वरूप मानना, स्य को अथवा पर को न जानने वाले ज्ञान को प्रमाण मानना, अनिश्चयात्मक ज्ञान अथवा दर्शन को प्रमाण कहना या समारोप को प्रमाण कहना यह सब प्रमाण का स्वरूपाभास है । जो प्रमाण के लक्षण से तो हीन होता है और प्रमाण के जसा प्रतीत होता है वह प्रमाण म्वरूपाभास है। प्रमाणस्वरूपाभास से स्व और पर का निर्णय नहीं होता है । प्रमाण का स्वरूप स्व और पर का यथार्थ निर्णय करना कहा गया है । सन्निकर्ष ज्ञानरूप नहीं है इसलिये वह प्रमाण स्वरूपाभास है। अनात्म प्रकाशक ज्ञान स्व का व्यवसायक नहीं है । इसलिये वह प्रमाणस्वरूपाभास है। स्वमात्रावभासक ज्ञान पर का व्यवसायात्मक नहीं है इसलिये वह प्रमाणस्वरूपाभास है। निर्विकल्पक दर्शन और समारोप ये पदार्थ के निश्चायक नहीं हैं इसलिये स्वरूपाभास हैं ।।१।।