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न्यायरत्नसार : पंचम अध्याय
स्याख्या-अर्थ-प्रमाणरूप से परिणत आत्मा का ही फल से परिणमन होता है । इस सूत्र द्वारा सुत्रकार ने प्रकारान्तर से प्रमाण और उसके फल में किसी अपेक्षा भिन्नता और किसी अपेक्षा
धित की है। इसमें यह समझाया गया है कि स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है । इस प्रकार के ज्ञानरूप से परिणमन आत्मा का ही होता है, इन्द्रियादिकों का नहीं । क्योंकि अत्मा प्रमाता है, वही ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानती है । पदार्थों का जाननारूप जो परिणमन आत्मा का हुआ है बही तो अज्ञाननिवृत्ति है और इस अज्ञाननिवृत्ति का परिणमन हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि रूप है । इस तरह ज्ञानरूप प्रमाण का और उसके फल का तादात्म्य सम्बन्ध एक उसी आत्मा के साथ है कि जिस आत्मा में प्रमाणरूप ज्ञान ने ज्ञयविषयक अज्ञान की निवृत्ति रूप साक्षात्फल और हानादि रूप परम्परा फल को उत्पन्न किया है । इसके अर्थ को और विशेष रूप से जानने के लिये न्यायरत्नावली टीका देखनी चाहिये ||८||
सुत्र-अन्यथा स्वेतर-प्रमाण फलव्यवस्था न स्यात ॥l
व्याख्या-प्रमाण और फल के विषय में जैसी व्यवस्था दी गई है यदि वह बैमी न मानी जावे तो फिर स्वकीय और परकीय प्रमाण और उसके फल की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है । तात्पर्य इस धन का यही है कि प्रमाण और फल जच परम्पर में सर्वथा भिन्न माने जावेंगे तो जिस प्रकार जिनदत्त की आत्मा में विद्यमान प्रमाण और फल में भिन्नता है उसी प्रकार से वह भिन्नता उन दोनों की देवदत्त की आत्मा से भी है तो फिर ये प्रमाण और फल जिनदन की आत्मा के हैं, देवदत्त की आत्मा के नहीं हैं ऐसा सम्बन्ध व्यवहार कैसे हो सकता है ? तथा सर्वथा प्रमाण फल को अभिन्न मानने में यह प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता है क्योंकि सर्वथा एकत्व में दो का सदभाव नहीं होता है, एक का ही होता है ॥६॥
सूत्र-स्व-पर-निश्चये साधकतमत्वात्साक्षात्फलं प्रमाणस्वधकरणत्वम् ।।१०।।
अर्थ--स्व और पर के निश्चय में साधकतम होने के कारण, साक्षात्फल में प्रमाण को ही कारणता है।
व्याख्या साक्षात्फल और प्रमाणरूप ज्ञान में कार्य-कारण भाव होने से कथंचित् भिन्नता का कथन सातवें सूत्र द्वारा किया गया है । सो इसी बात के समर्थन के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र की रचना की है । अज्ञाननिवृत्ति कराना यही प्रमाण का साक्षात्फल है। इसके प्रति साक्षात्करणता प्रमाणरूप ज्ञान में ही आती है । इसलिये इस अपेक्षा उन दोनों में कथंचित् भिन्नता कही गई है ॥१०॥
सूत्र-तत्त प्रमाण निष्पाद्यत्वात्कार्यम् ॥११॥
वयाख्या-वह अज्ञाननिवृत्तिरूप फल-कार्य-इसलिये माना गया है कि वह प्रमाणभूत ज्ञान द्वारा उत्पन्न होता है जिस प्रकार छिदि-क्रिया यद्यपि कुठार से ही जन्य होती है और उसमें कथञ्चित् भिन्नता मानी जाती है ॥११॥ क्रिया-क्रियावान् में कश्चित् भिन्नता-अभिन्नता का कथन
सूत्र-क्रिया क्रियायोमिथः स्यादिनस्वाभिन्न स्वमेव प्रमातु पतस्मादनेकान्तो नेपः ।।१२।।
व्याख्या--क्रिया और क्रियावान् में सर्वथा न भिन्नता ही है और न सर्वथा अभिन्नता ही है किन्तु कथञ्चित् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता है । इसी प्रकार की मान्यता क्रिया को आत्मा-प्रमाता के