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न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय व्याख्या-शब्द प्रधान रूप से निषेध का ही प्रतिपादक होता है, यदि ऐसी ही एकान्त मान्यता अंगीकार की जावे तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इसकी एकान्तता में विधि की प्रतिपत्ति उससे नहीं हो सकेमी । यदि अप्रधानरूप से वह विवि का प्रतिपादक माना जावे तो पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार उसमें प्रधानता माने बिना अप्रधानता नहीं आ सकती है ।।२०॥ तृतीय भंग की एकान्लता की कथकता का निरसन :
सूत्र-विधि-निषेधान्यतर प्रतिपदनस्य प्रधानता शम्दे क्रमादुभयेकास प्राधान्यमस्तंगमयति ।२१॥ __ व्याख्या-जो ऐमा कहते हैं कि शब्द प्रधानता से क्रमशः विधि और निषध का ही बोधक है । विधि को प्रधान करके वह निषेध को गौण नहीं करता और निषेध को प्रधान करके विधि को गौण नहीं करता । अतः वह प्रथम भंग और द्वितीय भंग को नहीं बनाता है, केवल एक तीसरे भंग को ही बनाता है । सो इस प्रकार की किसी की एकान्त मान्यता उचित नहीं है। क्योंकि जब तक इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा तब तक इनमें मुख्यता और गौणला के होने का कथन प्रमाणित नहीं हो सकेगा और तृतीय भंग में जो इन्हें क्रमशः मुख्यता दी गई है वह कसे दी जा सकेगी अतः शब्द तृतीय रंग की तरह नामोनिशा भी जावक है ऐसा अनुभव निराकृत नहीं किया सकता है ।।२१।। चतुर्थ भंग की एकान्तता की काथवता का शब्द में निरसन :
सूत्र–अवक्तभ्य शब्देनापि वाच्यत्वाभाव प्रसङ्गतश्चतुर्थभंगकान्तोऽप्यकान्तः ॥२२।। ___ व्याख्या यदि ऐसा कहा जाय कि एक साथ अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों का प्रतिपादक कोई शब्द नहीं है इसलिये इन दोनों धर्मों से विशिष्ट वस्तु सर्वथा अवक्त ही है तो इस एकान्त मान्यता का निरसने वाला यह सूत्र है । इसमें यह समझाया गया है कि यदि इसी मान्यता को रवीकार किया जावे तो फिर जैसे कोई ऐसा कहे कि मेरी माता वन्ध्या है वैसा ही यह कथन है क्योंकि सर्वथा अवक्तता में यह अवक्तव्य है ऐसे शब्द द्वारा भी बह कथित नहीं किया जा सकता है। ऐसा कहना तो कथञ्चित् अवक्तव्य पक्ष में ही हो सकता है। पार। पंचम भङ्गादिकों की एकान्तता का निरसन :--
सूत्र–इतरयापि संवेदनाच्छेषभङ्गत्रय कान्तोऽप्येवमेव ॥२३॥ ___ अर्थ—शेष भङ्गों का पांचव, छठवें और सातवें भंगों का एकान्त पक्ष भी इसी तरह का हैएकान्त है-न्यायानुकूल नहीं है।
व्याख्या-जब एकान्तबादी ऐसा कहता है कि शब्द विधिरूप अर्थ का वाचक होता है, एक साथ विधि निषेध का वह अबाचक ही होता है तब उस भंग में एकान्तता आ जाती है और यह एकान्तता इसलिये ठीक नहीं मानी जातो कि शब्द निषेधरूप पदार्थ का वाचक होता युगपत् विधि-निषेध दोनों पदार्थ का अबाचक होता है । इसी प्रकार से शब्द नास्तित्वरूप अर्थ का प्रतिपादन करता हुआ वह दोनों धर्मों का युगपत्त्याचक नहीं ही होता है । यह छठवें भंग की एकान्तता भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि इस प्रकार की एकान्तता में वह पांचवें भंग का शक नहीं हो सकता। इसी प्रकार सातवें भंग का भी एकान्त ठीक नहीं है क्योंकि शब्द प्रथम आदि भंगों का भी वाचक होता है। अतः किसी भी भंग की एकान्तता अबाधित नहीं है ऐसा इस कथन का निष्कर्षार्थ है ॥२३॥ एक-एक धर्म को लेकर सप्तभंगी का प्रतिपादन
सूत्र-धर्म धर्म प्रति सप्तभंगसद्भावतोऽनन्ताः सप्तमा यः प्रश्न-जिज्ञासा-संदेहतङ्गोबरीशानां सप्तविधस्यात् ॥२४॥