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न्यायरत्नसार चतुर्थ अध्याय
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अर्थ -- वस्तुगत एक-एक धर्म को लेकर सात-सात भंग होते हैं। इस तरह वस्तुगत अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभिङ्गयाँ बन जाती है ।
व्याख्या- किसी ने ऐसी शंका जब की कि जीवादि पदार्थों में विधिरूप और निषेधरूप अनन्त धर्म आहेत दर्शन में स्वीकार किये गये हैं। अतः उनकी अनन्तभंगी मानना चाहिये, सप्तभंगी मानना ठीक नहीं है । तब इस प्रश्न का समाधान इस सूत्र द्वारा दिया गया है कि एक-एक धर्म को लेकर सात-सात ही भंग होते हैं, न आठ-नी आदि भंग होते हैं और न कम मंग होते हैं। अतः इस तरह वस्तुगत अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तगियों बन जाती है। इसी कारण अनन्त सप्तभंगी बन जाने की यह बात हम जैनों को मान्य है । भंग सात ही क्यों होते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि पूछने वाला सात ही प्रकार से एक धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न पूछता है। सात ही प्रकार से वह क्यों पूछता है ? तो इसका कारण यह है कि उसकी जानने की इच्छा सात ही प्रकार की होती है। जिज्ञासाएँ साल ही क्यों होती हैं ? तो इसका कारण यह है कि उसे सात प्रकार से संदेह होता है। संदेह सात कारण से क्यों होता है ? तो इसका समाधान यह है कि संदेह के विषयभूत अस्तित्व आदि प्रत्येक वस्तुगत धर्म सात प्रकार के होते हैं ||२४||
सप्तभंगी की द्विविधता '――
सूत्र - सप्तभंगीयं प्रतिभंगं सकलदेश - विकला देश मेदाद् द्विविधा ||२५||
अर्थ - यह सप्तभंगी प्रत्येक में सकलादेश रूप और विकलादेशरूप होती है । इस लिये हो सकलादेश और विकलादेश से इसके दो भेद जाते हैं ।
व्याख्या -सकलादेश का नाम प्रमाण सप्तभंगी है और विकलावेश का नाम नय सप्तभंगी है। ard को पूर्णरूप से विषय करने वाला प्रमाण है। और वस्तु को अंश रूप से विषय करने वाला नय है । वाक्यों में भी दो भेद होते हैं- एक प्रमाणवाक्य और दूसरा नयवाक्य । प्रमाणवाक्य और नयवाक्य का अन्तर हमें शब्दों से नहीं किन्तु भावों के ज्ञात होता है । जब हम किसी शब्द द्वारा पूरी वस्तु को कहते हैं तब सकलादेश प्रमाणवाक्य माना जाता है और जब शब्द के द्वारा किसी एक धर्म को कहते हैं तब विकलादेश नयवाक्य माना जाता है ||२४|
सकल देश का स्वरूपं :
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सूत्र- द्रव्य पर्यायापितेन कालादिभिरमे वेना मेदोपचारेण च सकलवस्तुनः प्रतिपादकत्वं सकलावेशत्वम् ||२६||
अर्थ - - द्रव्याथिक और पर्यायार्थिकनय की मुख्यता और गौणता से अभेद करके एवं पर्यायाविनय की मुख्यता और द्रव्यार्थिकनय की गौणता से अभेद का उपचार करके समस्त धर्मविशिष्ट वस्तु का जो कथन किया जाता है वह सकला देश हैं |
व्याख्या - वस्तुगत अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म के प्रतिपादन द्वारा जो वाक्य उन शेष धर्मों की उस प्रतिपादित किये गये धर्म के साथ काल, आत्म-रूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द द्वारा अभेदवृत्ति करके या उनमें अभेद का उपचार करके उन समस्त धर्मो का प्रतिपादक होता है -- उस अनन्तधर्मात्मक वस्तु संबंधी बोध का जनक होता है वह सकलादेशरूप प्रमाणवाक्य है । यह तो हम जान चुके हैं कि वस्तु अनन्त धर्मों का एक पिण्ड है । वस्तु के उन अनन्त धर्मों को प्रतिपादन करने के लिये अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। तभी वह वस्तु पूर्णरूप से कही जा सकती - एक शब्द द्वारा तो उसका एक ही धर्म प्रतिपादित हो सकता है। इससे वस्तु का प्रतिपादन अधूरा