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म्मायरलसार : चतुर्थ अध्याय
[३६ है। न तो प्रत्येक वस्तु सर्वरूप से अस्तित्वविशिष्ट है और न सर्वरूप से बह नास्तित्व विशिष्ट है । यद्यपि अस्तित्व और नास्तित्व भंग के साथ स्यात् पद प्रयुक्त होता है उससे यह समझ लिया जाता है कि प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा ही अस्तिरूप है और परचतुष्टय की अपेक्षा ही नास्तिरूप है अतः प्रत्येक वस्तु सर्वत्र न व्यापक हो सकेगी और न सर्वत्र वह अभावरूप होगी। अतः एक ही अस्ति भंग मे काम चलाया जा सकता है, ऐसी यदि कोई आशंका करे तो उसका उत्तर ऐसा है कि इन दोनों भंगों से जो भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है वह एक प्रथम भग के मानने से नहीं हो सकता है। जैसे-यदि कहा जाय कि अमुक व्यक्ति बाजार में नहीं है तो इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि वह अमुक जगह है। बाजार में न होने पर भी कहां पर है यह जिज्ञासा बनी ही रहती है. जिसके लिये अस्ति भंग को जरूरत है । व्यवहार में अस्ति भंग के प्रयोग होने पर भी नास्ति भंग के प्रयोग की आवश्यकता होती है। मेरे हाथ में रुपया है, यह कहना एक बात है और तुम्हारे हाथ में रुपया नहीं है, यह कहना दूसरी बात है। इस तरह दोनों भंगों का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है। क्या अन्योन्याभाव से नास्ति भंग की पूर्ति नहीं होती? हां; नहीं होती क्योंकि इसका सम्बन्ध किसी नियम अभाव से नहीं है. चारों प्रकार के अभावों से है। तीसरे भंग के विषय में यदि ऐसा कहा जाय कि अस्ति नास्ति इन दोनों भंगों में तीसरा भंग गभित हो जाता है तो फिर इसकी क्या आवश्यकता है ? तो इसके सम्बन्ध में ऐसा जानना चाहिये कि स्वतन्त्र अस्ति और नास्ति भंग के जो कार्य हैं, उनसे भिन्न हो इस तीसरे भंग का कार्य है। एक और एक मिलकर दो बनते हैं पर एक-एक के कार्य से दो का कार्य अलग होता है। अथवा एक-एक की संख्या से इनके संयोग से जन्य दो संख्या अलग ही मानी जाती हैं । अस्ति और नास्ति इन दोनों को हम एक समय में नहीं कह सकते इसलिये चतुर्थ भंग बन जाता है । क्रमशः अस्तित्व धर्म की विवक्षा में और गणपत अस्ति नास्ति धर्म की विवक्षा में पांचवां भंग, क्रमशः नास्तित्व धर्म की विवक्षा में और युगपद दोनों धर्मों की विवक्षा में छठा भंग एवं क्रमशः दोनों धर्मों की विवक्षा में और युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा में सातवां भंग बनता है ॥१७|| शब्द में विधि प्रतिपादनता की एकान्तता का निरसन :
सूत्र-विधेरिव निषेधस्यापि बोधकत्वाच्छब्दात्तत्प्रतिपत्तिः ॥ १८॥
व्याख्या- शब्द जिस प्रकार अस्तित्व का बोधक होता है उसी प्रकार से वह नास्तिल का भी बोधक होता है। अतः जिनकी ऐसी मान्यता है कि शब्द प्रधान रूप से विधि का ही कथक होता है या प्रधानरूप से नास्तित्व का ही कथक होता है अन्य का गौण रूप से सो इस एकान्त का निरसन इस सूत्र द्वारा किया गया है । ।।१८॥
सूत्र-गुणभावे नैवतदभिधाने तत्र गौणत्वानुपपत्तिः ॥१६॥
व्याख्या--यदि ऐसा ही मान लिया जावे कि शब्द विधिधर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादक होता है और गौण रूप से निषेध का--नास्तित्व धर्म का प्रतिपादक होता है तो इस पर यह आपत्ति आती है कि नास्तित्व धर्म में प्रधानता माने बिना गौणता नहीं आ सकती है। अतः उसमें गौणला लाने के कहीं न कहीं उसमें प्रधानता अंगीकार करनी चाहिये । अतः यही मानना युक्तियुक्त है कि शब्द कहीं पर जिस प्रकार से विधि का प्रधानता से कहने वाला होता है उसी प्रकार वह प्रधानता से नास्तित्व धर्म का भी कहने वाला होता है ॥ १९॥ शब्द में द्वितीय भंग की एकान्त कथकता का निरसन :
सूत्र- मुख्यत्वेन निषेधकान्त वाण्योक्तिरप्यकान्तोक्त युक्ते : ॥ २० ॥