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न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय ध्याल्या- जब हमें वस्तु के स्व-रूप की अपेक्षा होती है तब हम उसे अस्तित्वविशिष्ट और जब पर-रूप की अपेक्षा होती है तब हम उसे नास्तित्वविशिष्ट कहते हैं। इसी प्रकार जब हमें स्व-रूप और पर-रूप दोनों की अपेक्षा होती है तब हम उसे अस्ति-नास्तिस्वरूपविशिष्ट कहते हैं। इस तरह इस तृतीय भङ्ग में क्रमशः दोनों भंग प्रधान रूप से विवक्षित होते हैं ।। १३ ।।
सूत्र-चतुर्थ भंग-स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद प्राधान्येन विधिनिषेधधिवक्षया चतुर्थः ॥ १४ ।।
ध्याख्या-जब अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मों की एक साथ प्रधानता कर वस्तु का कथन करना होता है तब वह वस्तु कथंचित् अवक्तव्य हो जाती है । इसी बात को प्रकट करने वाला यह चतुर्थ भंग है । वस्तु अनन्त धर्मों का एक पिण्ड है । अतः उन अस्तित्व-नास्तित्व धर्मों द्वारा जब हम उस वस्तु को एक साथ कहना चाहें तो नहीं कह सकते । अतः इस दृष्टि से वस्तु अन्वक्तव्य (न कहने योग्य) कोटि में आ जाती है ॥ १४ ।।
सूत्र-चर्चा भंग-आयतर्ययोर्योमे पंचमः ॥१५॥
व्याख्या–प्रथम भंग और चतुर्थ भंग के योग से पांचवाँ भंग होता है। इसका आलाप प्रकार "स्यात्सदेव स्यादवक्तव्यमेव" ऐसा है । तात्पर्य इसका ऐसा है कि जब वक्ता का आशय ऐसा होता है कि वस्तु स्वरूप की अपेक्षा अस्तित्व धर्मविशिष्ट होती हुई भी अवक्तव्य है तब यह पंचम मंग बनता है ॥ १५ ॥
सूत्र-छठवां भंग-द्वितीयतूर्य योोंगे षष्ठः ॥ १६ ॥
व्याख्या-द्वितीय भंग और चतुर्थ भंग का योग करने पर यह छठवाँ भंग निष्पन्न होता है । इसके द्वारा यह समझाया जाता है कि घटादि वस्तु पर-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्वविशिष्ट होती हई भी अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों द्वारा युगपत् वक्तु' अशक्य है इसलिये "स्यानास्त्येव सर्व अवक्तव्यं च"॥१६।।
सूत्र-सातवाँ भंग--क्रमाक्रमाभ्यां विधि-प्रतिषेधकल्पनारूपः सप्तमः ॥ १७ ॥
व्याख्या-विधि--अस्तित्व एवं प्रतिषेध-नास्तित्व की जब क्रमशः मुख्यता की जाती है तब तृतीय भंग की और जब इन दोनों की युगपत् मुख्यता की जाती है तब चतुर्थ भंग की निष्पत्ति होती है। अतः तृतीय और चतुर्थ भंग के योग होने पर यह सातवाँ भंग बनता है । इन सात भगों की सार्थकता के विषय में विचार इस कथन से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि मूल भंग दो हैं अस्ति और नास्ति । इन दोनों की युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य नाम का भंग बना है। इन तीनों के असंयोगी अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य, विसंयोगी अस्ति-नास्ति, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य और त्रिसंयोगी अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य भंग बनाने से सात भंग हो जाते हैं।
शंका--मूल भंग में केवल स्यादस्ति यही एक भंग रखा जावे तो क्या हानि है ?
उत्तर-यदि स्यादस्ति यही एक भंग रखा जावे तो वस्तु जिस प्रकार एक जगह अस्ति रूप है उसी प्रकार वह सर्वत्र अस्तिरूप हो जावेगी । ऐसी स्थिति में उसकी सर्वत्र सत्ता स्थापित हो जाने के कारण वह व्यापक हो जावेगी। तो जब कोई "दही खा लो" ऐसा किसी से कहेगा तो उसकी प्रवृत्ति ऊँट की तरफ भी हो जाने लगेगी। इसी प्रकार केवल नास्ति भंग मानने में भी आपत्ति आती है, क्योंकि इससे समस्त दृश्यमान वस्तुओं का अभाव हो जावेगा। इसलिये इनकी प्रत्येक की केबलता प्रमाणविरुद्ध